अनुराधा : कैसे दिन बीतें, कैसे बीती रतियां, पिया जाने न हाय...

अंग्रेजी-फ्रेंच साहित्य का सबसे उत्कृष्ट उपन्यास का जिसे खिताब मिला है, उस 'मैडम बोवरी' की इस लोकप्रियता का कारण उसकी नायिका एम्मा बोवरी और उसका विषयवस्तु था। एम्मा का जीवन के प्रति दृष्टिकोण अत्यंत रोमांटिक है और उसे सुंदर दिखने, ऐशोआराम करने, उत्कट रूप से जीने और भद्र लोगों के बीच घूमने-फिरने की चाहत थी।

Mar 14, 2024 - 12:51
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अनुराधा : कैसे दिन बीतें, कैसे बीती रतियां, पिया जाने न हाय...
Anuradha

फ्रेंच साहित्य में यथार्थवाद के प्रणेता माने जाने वाले गुस्ताव फ्लुबर्ट (1821-1880) का 1956 में एक उपन्यास प्रकाशित हुआ था, 'मैडम बोवरी'। यह उपन्यास मूल फ्रेंच में लिखा गया था और कम से कम 19 बार अंग्रेजी में अनुवादित किया गया था। 'मैडम बोवरी' उपन्यास 10 फिल्मों और टीवी सीरियल का प्रेरणा बना था। इसमें दो प्रसिद्ध हिंदी फिल्में भी थीं, जिनकी बात बाद में करेंगे।

अंग्रेजी-फ्रेंच साहित्य का सबसे उत्कृष्ट उपन्यास का जिसे खिताब मिला है, उस 'मैडम बोवरी' की इस लोकप्रियता का कारण उसकी नायिका एम्मा बोवरी और उसका विषयवस्तु था। एम्मा का जीवन के प्रति दृष्टिकोण अत्यंत रोमांटिक है और उसे सुंदर दिखने, ऐशोआराम करने, उत्कट रूप से जीने और भद्र लोगों के बीच घूमने-फिरने की चाहत थी।

उसका पति चार्ल्स देहाती था और गांव में डाक्टरी करता था। उसे लोगों का इलाज करने के अलावा अन्य किसी चीज में रुचि नहीं थी। देखने में दोनों के बीच असमानता थी, पर चार्ल्स पत्नी के प्रति समर्पित था और उसके रंगरलिया करने के बावजूद उसे पत्नी में कोई कमी नजर नहीं आती थी।

रोमांटिक कल्पनाओं और जीवन की वास्तविकताओं के बीच असमानता में एम्मा फंस गई थी और एक बड़ी देनदारी में फंस कर अंत में आत्महत्या करती है। उसने मन से जिया और मन में आया इसलिए मर गई। गुस्ताव ने घरेलू जीवन जीने वाली एक कल्पनाशील स्त्री की एकविधता और जीवन में नवीनता के लिए उसकी भूख पर हताशा और निराशा पर एक मनोवैज्ञानिक कहानी लिखी थी।

एम्मा एक गैरपरंपरागत साहित्यिक पात्र थी। यह उसकी कामुकता थी या फिर भौतिक जीवन के प्रति असंतोष था, जो उसे असाधारण और विनाशक जीवन की ओर ले गया था। गुस्ताव द्वारा उठाए गए इस सवाल से तमाम फिल्म निर्माता 'मैडम बोवरी' की ओर आकर्षित हुए थे। जैसा ऊपर बताया है कि इस उपन्यास पर हिंदी में दो शानदार फिल्में बनी हैं।

1960 में ऋषिकेश मुखर्जी ने इससे प्रेरित होकर 'अनुराधा' बनाई थी। 1993 में केतन मेहता ने इस पर 'माया मेमसाब' का निर्माण किया था। दोनों के बीच तात्विक फर्क यह था कि ऋषिकेश मुखर्जी ने 'मैडम बोवरी' का मात्र मूल प्लाट ही उठाया था। उनकी अधुराधा स्वच्छंद नहीं थी, पर वैवाहिक जीवन से ऊबी थी। केतन मेहता मैडम बोवरी के पूरी तरह वफादार रहे थे। (यहां तक कि माया मेमसाब नाम भी मिलता जुलता था) और उनकी माया को व्यभिचारी एम्मा की अपेक्षा एक कदम आगे ले जा कर भ्रमित (सादी भाषा में पागल) जीवित दिखाया था।

'माया मेमसाब' दूसरे दो कारणों से भी चर्चा में रही थी। एक तो इस में एम्मा (माया) की भूमिका मेहता की पत्नी दीपा शाही ने की थी और दूसरी उसके प्रेमी की भूमिका शाहरुख खान ने की थी। 'माया मेमसाब' एकमात्र फिल्म है, जिसमें खान ने बोल्ब बेडरूम सीन किया था। अब आइए ऋषिकेश की 'अनुराधा' की बात करते हैं। 'माया मेमसाब' की बात आगे करेंगे।

'अनुराधा' ऋषि दा की 'चुपक-चुपके', 'गोलमाल', 'अभिमान', 'गुड्डी' और 'आनंद' जैसी प्रख्यात नहीं थी, पर इस पर ध्यान दिया जा सके इस तरह गहराई वाली थी। सचिन भौमिक जैसे जानेमाने लेखक ने 'मैडम बोवरी' पर बंगला में एक संक्षिप्त कहानी लिखी थी, जो 'अनुराधा का आधार बनी थी।फिल्म को श्रेष्ठ फिल्म का राष्ट्रीय पुरस्कार मिला था और बर्लिन फिल्म फेस्टिवल के लिए गोल्डन बेर के लिए नामांकित हुई थी। 

1954 की फेमिना मिस इंडिया लीला नायडू की यह पहली फिल्म थी, जिन्हें उस साल अंतरराष्ट्रीय पत्रिका 'वोग' में दुनिया की दस सब से खूबसूरत स्त्रियों में स्थान मिला था। लीला परमाणु वैज्ञानिक डा. रामैया नायडू और उनकी स्विस-फ्रेंच पत्रकार पत्नी मार्थे की बेटी थी। वह भारत और फ्रांस में पली-बढ़ी थी। 

विमल राय के सहायक रह चुके ऋषि दा ने अपनी तीसरी फिल्म 'अनुराधा' में नवोदित लीला नायडू को इसलिए पेश किया था, क्योंकि एम्मा बोवरी फ्रेंच स्त्री थी।

कहानी कुछ इस तरह थी। एक प्रख्यात रेडियो गायक और नृत्यांगना अनुराधा राॅय (लीला) एक आदर्शवादी और सामान्य घर के डा.निर्मल चौधरी (बलराज साहनी) के प्यार में पड़ती है। अनुराधा के पिता इस संबंध के खिलाफ हैं। अनुराधा के पिता चाहते थे कि वह लंदन से आए दीपक (अभि भट्टाचार्य) के साथ विवाह करे। पर अनुराधा इस प्रस्ताव को ठुकरा देती है। दीपक अनुराधा को शुभकामनाएं देता है और भविष्य में कभी जरूरत पड़ने पर मदद करने का वचन दे कर चला जाता है।

विवाह और एक बेटी होने के बाद अनुराधा को गांव में ऊब होने लगती है। उसका गाना बंद हो गया था और वह घर की चारदीवारों में कैद हो कर रह गई थी। सालों बाद उसके पिता उससे मिलने आते हैं तो इस युगल से शहर आने को कहते हैं। निर्मल ने कहा कुछ सालों बाद वह विचार करेगा।

इस दौरान दीपक अपनी प्रेमिका के साथ कार दुर्घटना का शिकार हो जाता है। डा.निर्मल प्रेमिका की सर्जरी करता है। इस दौरान दीपक को अनुराधा की परेशानियों का अहसास होता है और वह निर्मल को छोड़कर शहर जाने और अपने संगीत के शौक को पूरा करने की सलाह देता है।

अनुराधा अब संगीत पसंद करे या पति, इस दुविधा में पड़ जाती है। डा.निर्मल भी खुद को छोड़कर शहर जाकर अपना जीवन फिर से शुरू करने की अनुराधा की इच्छा को स्वीकार कर लेता है। इस निर्णायक क्षण में अनुराधा निर्धार कर के डा.निर्मल से कहती है, 'आप उसे (दीपक को) जाने और फिर कभी न आने के लिए क्यों नहीं कहते?' यानी अनुराधा पति को छोड़ने को तैयार नहीं थी।

फिल्म का एक महत्वपूर्ण अंग संगीत था। फिल्म 'अनुराधा' में शास्त्रीय संगीतकार पंडित रविशंकर, गायिका लता मंगेशकर और गीतकार शैलेन्द्र की अनपेक्षित जुगलबंदी थी। फिल्म की आत्मा उसके संगीत में है। क्योंकि फिल्म की नायिका गायिका थी। फिल्म में कुल पांच गाने थे।

जाने कैसे सपनों में खो गई अंखियां..., संवारे संवारे कहे मोसे..., कैसे दिन बीते, कैसे बीती रतियां..., बहुत दिन... और हाय रे वह दिन क्यूं न आए...।

फिल्म में एक दृश्य है। दीपक के आग्रह पर अनुराधा गाना गाती है। गाना भले दीपक की फरमाइश का है, पर उसके केंद्र डा.निर्मल है, जो अपने मेडिकल के काम में व्यस्त है। गाने के दौरान किसी काम से निर्मल बाहर जाता है। दीपक इस गाने में उसके न बहने वाले आंसू देखता है। उसकी आवाज में पति की ओर से मिलने वाली उपेक्षा की पीड़ा का अनुभव करता है। इस गाने में अनुराधा फिल्म का केंद्रवर्ती विचार है। 

कैसे दिन बीते, कैसे बीती रतियां
पिया जाने न हाय
नेहा लगा के मैं पछताई
सारी सारी रैना निंदिया न आई
जान के देखो मेरे जी की बतियां।

वीरेंद्र बहादुर सिंह 

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