समान भूमि (विदेश में भारतीय स्त्री)

ठोकरें खाती है, चोट लगती है, चाल धीमी हो जाती है, अपनी पसंद के किसी भी काम के लिए उसके पास अपने हाथ उपलब्ध नहीं रहते फिर भी वह ऐसे ही चलती रहती है। परंतु दोनों हाथों में से किसी भी एक हाथ को जेब से निकालने की उसकी हिम्मत नहीं होती। ऐसे में वह झेलती रहती है अतिरिक्त भार, धमकियां, बेवजह के ताने परंतु अपने हक़ के लिए, प्रतिरोध करने के लिए कहीं उसका स्वाभिमान और पढ़ाई लिखाई उसे सामने वाले के स्तर तक जाने नहीं देती, कभी उसके तथाकथित संस्कार आड़े आ जाते हैं।

Apr 16, 2024 - 17:26
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समान भूमि (विदेश में भारतीय स्त्री)
INDIAN WOMEN

एक कहावत है कि हर चमकने वाली चीज़ सोना नहीं होती। मुझे ये कहावत लन्दन में बसी भारतीय मूल की महिलाओं पर एकदम चरितार्थ जान पड़ती है।

भले ही भारत में रहने वाली महिलाएं यहाँ लन्दन में रहने वाली महिलाओं की किस्मत पर रश्क करें, परन्तु यहाँ रहने वाली भारतीय मूल की महिलाओं के लिए ये जीवन कदापि सहज नहीं होता। यहाँ रहने वाली महिलाओं को आर्थिक, सामाजिक और धार्मिक कई तरह की समस्याओं से जूझना पड़ता है। सबसे पहले आती है आर्थिक समस्या - जिससे यहाँ आते के साथ ही दो - चार होना पड़ता है क्योंकि परिवार में एक की कमाई से यहाँ निर्वाह नहीं किया जा सकता. ऐसे में सभी को अपने लिए आर्थिक साधन ढूँढने पड़ते हैं जो की यहाँ के क़ानूनी अधिकार और नियमों की जानकारी न होने से बहुत ही जटिल होता है। आप चाहे कितने भी पढ़े लिखे हो जरुरी नहीं कि आपकी योग्यता के अनुसार आपको यहाँ काम मिल जाये खासकर तब जब आपको ज़रुरत हो।

आखिर क्या पहचान है भारतीय स्त्री की विदेश में ? उसके कोई चार हाथ, दो नाक नहीं होती। कोई अजूबा सा लिबास नहीं होता। हाँ शायद त्वचा का रंग कुछ गाढ़ा हो। हालाँकि आजकल वह भी देखने में कम ही आता है। फिर भी कुछ है जो उसे भारतीय बनाता है,उसके अन्दर की भारतीयता को मरने नहीं देता और यही भाव शायद उसके व्यक्तित्व में हमेशा परिलक्षित होता है। 

माता पिता ने शादी करके भेजा था, बेटी बाहर रहेगी तो ज्यादा सुखी रहेगी, आजाद रहेगी उसके व्यक्तित्व का विकास होगा। यहाँ आई तो जैसे सबकुछ अनजाना था। अंग्रेजी आती थी फिर भी यहाँ के लोगों की भाषा न उसे समझ आती थी, न वह उन्हें अपनी समझा पाती थी। पति ने भारत जाकर शादी इसलिए की थी कि उसे घर सँभालने और खाना बनाने के लिए कोई चाहिए था। यहाँ आकर सास, ननद के अभाव में वह थ्री इन वन बन गया था। अपने दोस्तों के साथ उसे मिलाते हुए पति को शर्म आती थी। वो ठीक से अंग्रेजी नहीं बोल पाती हालाँकि शादी करते वक़्त उसने साफ़ साफ़ अंग्रेजी माध्यम से पढ़ी लड़की की मांग की थी। सारा दिन घर के कामों में लगे रहने के बाद भी घर आते ही उसके ताने शुरू हो जाते - घर चमकता हुआ साफ़ नहीं है, खाना सलीके से बनाना नहीं आता। कुछ दिन वह अपना देश और अपने लोगों को याद कर रोती है। वापस जाकर माता पिता की मुश्किलें नहीं बढ़ाना चाहती। फिर अपना वजूद इकट्ठा करती है, कुछ आसपास के लोगों से बात करती है, कोई छोटा मोटा व्यस्क लोगों के लिए कोर्स करती है और अपनी योग्यता से कुछ कम ही कोई काम ढूंढ लेती है। भारत से लाये पारंपारिक कपड़े और सुहाग चिन्ह उसने उठाकर रख दिए हैं। अब वह उन्हें खास त्यौहारों पर ही निकालती है। रच गई है यहाँ के रंग में। यहाँ के लोगों की तरह ही बोलती, उठती, बैठती, पहनती है पर फिर भी त्यौहारों पर कुछ परंपरागत पकवान बनाती है कि जुड़ी रह सके कुछ अपनी मिट्टी से। भारत जाती है तो लोग उसे अब विदेशी हो जाने के ताने देते हैं पर क्या वाकई वो विदेशी हो पाई है। 
वह एक जेब में अपना फेमिनिज्म और दूसरी में बचपन में घुट्टी में मिले संस्कार लेकर चलती है। एक जेब में हाथ डालती है तो दूसरी खाली- खाली लगने लगती है। दूसरी में हाथ डालती है तो पहली अधूरी सी लगने लगती है। अब वह दोनों जेबों में दोनों हाथ डालकर चलती है तो दोनों हाथ घिर जाते हैं और वह बेबस, मजबूर महसूस करने लगती है। मगर फिर भी चलती रहती है। दोनों जेबों में डाले यूँ ही चुपचाप सी। ठोकरें खाती है, चोट लगती है, चाल धीमी हो जाती है, अपनी पसंद के किसी भी काम के लिए उसके पास अपने हाथ उपलब्ध नहीं रहते फिर भी वह ऐसे ही चलती रहती है। परंतु दोनों हाथों में से किसी भी एक हाथ को जेब से निकालने की उसकी हिम्मत नहीं होती। ऐसे में वह झेलती रहती है अतिरिक्त भार, धमकियां, बेवजह के ताने परंतु अपने हक़ के लिए, प्रतिरोध करने के लिए कहीं उसका स्वाभिमान और पढ़ाई लिखाई उसे सामने वाले के स्तर तक जाने नहीं देती, कभी उसके तथाकथित संस्कार आड़े आ जाते हैं। और वह चलती रहती है दोनों हाथों को दोनों जेबों में डाले यूँ ही चुपचाप सी। 

मैं कोई नारीवादी नहीं हूँ। मैं तो एक घुमक्कड़ हूँ, जो पेशे से पत्रकार है और मन से कवि। तो जैसा जहाँ देखा, महसूस किया, समझा वैसा लिख दिया।  नारी विमर्श पर बहुत लोग बहुत कुछ लिख रहे हैं, काफी अच्छा और सार्थक भी लिखा जा रहा है और समाज में काफी बदलाव भी आया है। परन्तु मेरे लिए नारी विमर्श पुरूषों से लड़ाई नहीं है। वह कोई होड़ या प्रतिस्पर्धा भी नहीं है। वह तो बस अपने स्त्री होने और अपने इंसान होने के हक़ की लड़ाई है। 

मेरे लिए नारी मुक्ति या नारी आजादी वह है जब भरी मेट्रो में एक माँ अपने नवजात शिशु को दूध पिलाती है और उसे कोई घूर कर नहीं देखता।  मेरे लिए स्त्री विमर्श तब शुरू होता है जब कोई लड़की अपनी मर्जी से पढ़ना चाहती है, अपने मन का काम करना चाहती है और कोई उसे नहीं कहता की यह तुम्हारे बस की बात नहीं है।

मेरे लिए नारी विमर्श वह है जब एक स्त्री अपने बच्चों को पालने के लिए घर में रहती है और कोई उसे हाउस वाइफ का तमगा पकड़ा कर नहीं कहता कि यू आर गुड फॉर नथिंग। 

नारी मुक्ति के नाम पर पुरुषों के अवगुण को अपना कर उनका प्रदर्शन करना मैं स्त्री विमर्श नहीं मानती। बल्कि अपने स्त्रीत्व को कायम रखते हुए अपने जीवन पर अपने हक़ की लड़ाई का नाम स्त्री विमर्श है। 
और इस भूमि पर भारतीय स्त्रियों का जीवन भारत से बाहर भी फूलों की सेज नहीं है उसमें भी बहुत संघर्ष है, त्याग है, जिम्मेदारियां हैं । शायद अपनी धरती से कहीं ज्यादा ही।

शिखा वार्ष्णेय 

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