हिंदी काव्य में कृष्ण जन्म के हेतु: एक अध्ययन

कृष्ण जन्म का चित्रण हिंदी काव्य में एक आकर्षक पहलू है, जहां भगवान की अद्वितीयता और प्रेम को सुंदरता से जोड़कर प्रस्तुत किया जाता है। इस घटना के साक्षात्कार का अद्वितीय अहसास, भक्ति, और आध्यात्मिक सृजन के साथ एक समर्थन का अंश है। कृष्ण के जन्म का अद्वितीय स्वरूप आधुनिक काव्य में व्यक्त होता है, जहां उनकी माता देवकी और पिता वशुदेव के चिन्हित संबधों के माध्यम से यह स्वरूप समझाया जाता है।

Dec 3, 2024 - 11:37
Dec 3, 2024 - 11:41
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हिंदी काव्य में कृष्ण जन्म के हेतु: एक अध्ययन
Krishna's Birth
कृष्ण जन्म का चित्रण हिंदी काव्य में एक आकर्षक पहलू है, जहां भगवान की अद्वितीयता और प्रेम को सुंदरता से जोड़कर प्रस्तुत किया जाता है। इस घटना के साक्षात्कार का अद्वितीय अहसास, भक्ति, और आध्यात्मिक सृजन के साथ एक समर्थन का अंश है। कृष्ण के जन्म का अद्वितीय स्वरूप आधुनिक काव्य में व्यक्त होता है, जहां उनकी माता देवकी और पिता वशुदेव के चिन्हित संबधों के माध्यम से यह स्वरूप समझाया जाता है। उनका जन्म गोकुल के नंद यशोदा के घर में हुआ, जहां हर क्षण एक अद्भुत घटना बनता था। कृष्ण का बचपन वर्तमान काव्य में उच्च स्वर से बयान किया जाता है, जिसमें उनके खेलने का, माखन चोरी का, और गोपियों के साथ रास लीला का वर्णन होता है। यह सभी लीलाएं कृष्ण के आदिभूतता और आकर्षकता को बड़े रसभरे ढंग से प्रस्तुत करती हैं।
कृष्ण की विशेषता यहां यह है कि उनका जीवन गीता के माध्यम से भी दिखाया जाता है, जहां उन्होंने अर्जुन को धर्म, कर्म, और भक्ति के सिद्धांतों का उपदेश दिया। गीता के अद्वितीयता और महत्त्व को काव्य में समर्थन करना भी महत्त्वपूर्ण है। महाभारत युद्ध में कृष्ण का अद्वितीय योगदान और उनकी विजयों का वर्णन भी काव्य में समाहित हो सकता है। उनकी सार्थक उपस्थिति और अर्जुन को प्रेरणा देने वाले उनके वचन काव्य में आत्मविश्वास और साहस का स्रोत बन सकते हैं। हिंदी काव्य में कृष्ण जन्म एक आध्यात्मिक अनुभव को सुनहरी धारा में प्रस्तुत करता है, जो श्रद्धालुओं को भक्ति, प्रेम, और आत्मा के साथ एक संवाद महसूस होता है। प्रस्तावना-भक्तिकाल की सगुण भक्तिधारा में कूष्ण काव्य का विशेष महत्व है। संस्कृत में जयदेव ने गीत-गोविंद की रचना करके कृष्ण भक्ति की परंपरा को आरंभ किया जो कि विद्यापति की पदावली से होते हुए हिंदी साहित्य में भी चलती रही। कृष्ण भक्ति के प्रचार में वल्लभाचार्य के `पुष्टि संप्रदाय' का बहुत बड़ा योगदान माना जाता है। वल्लभाचार्य ने कूष्ण भक्तों को श्रीकृष्ण की लालाओं का गुणगान करने की प्रेरणा दी। उनके प्रमुख शिष्य सूरदास थे जो इस शाखा के प्रतिनिधि कवि भी हैं। वल्लभाचार्य के बेटे श्री विट्ठलनाथ ने पुष्टिमार्गी कवियों में से चार कवि अर्थात् सूरदास, परमानंददास, कुंभनदास और कृष्णदास को तथा अपने चार शिष्यों नंददास, चतुर्भुजदास,छीतस्वामी और गोविंदस्वामी को लेकर अष्टछाप की स्थापना की। इन आठ कवियों में सूरदास तथा नंददास अग्रणी हैं।मीराबाई इस काव्यधारा की प्रमुख कवयित्री हैं। भागवत पुराण इस काव्यधारा का आधार ग्रंथ है। कृष्ण के लीला पुरुषोत्तम रूप की स्थापना इस काव्यधारा में कृष्ण के लोक रंजक स्वरूप व माधुर्य से पूर्ण लीलाओं का चित्रण किया गया है। सूरदास भी विट्ठलनाथ से मिलने के पूर्ण दास्य भाव की भक्ति किया करते थे। मान्यता है कि विट्ठलनाथ ने ही सूरदास से कहा कि 'सूर होके काहें घिघियात हो, कछु लीला गान करो' जिसके बाद वे लीला पुरुषोत्तम कृष्ण के चरित गायन में प्रवृत्त हुए। लीलाओं का मुख्य उद्देश्य आनंद प्रदान करना है। बाल कृष्ण की वात्सल्य से पूर्ण लीलाएँ, बाल गोपालों के साथ सख्य रूप स्थापित करती लीलाएँ और ब्रज की गोपियों व राधा के साथ रास रचाने वाली माधुर्यमयी लीलाएँ संपूर्ण कृष्ण भक्ति काव्य में विद्यमान है। कृष्ण ब्रजवासियों को भयमुक्त करने हेतु पूतना वध, शेषनाग दमन आदि लीलाएँ भी करते हैं। ये लीलाएँ जनमानस के मन को आकृष्ट करने वाली हैं।
प्रेम के विविध रूपों का वर्णन- कृष्ण भक्त कवियों ने कृष्ण के जन्म से उनके मथुरा जाने तक के समय को चित्रित करते हुए कृष्ण भक्त कवियों ने बाल कृष्ण के वात्सल्य से पूर्ण विविध चित्र प्रस्तुत किए हैं। रामचंद्र शुक्ल ने तो यहाँ तक कहा कि 'बाल सौंदर्य और स्वभाव वर्णन में जितनी सफलता सूर को मिली है, उतनी अन्य किसी को नहीं। वे अपनी बंद आँखों से वात्सल्य का कोना-कोना झाँक आए हैं।' सूरदास ने सूरसागर में वात्सल्य का सजीव व सर्वांगपूर्ण चित्र प्रस्तुत किया है। यशोदा व नंद की गहन अनुभूतियों का अत्यंतसहज व स्वाभाविक चित्रण द्रष्टव्य है -
`सोभित कर नवनीत लिए।
घुटुरनि चलत रेनु तन मंडित, मुख दधि लेप किए।'
कृष्ण भक्त कवियों ने अन्य धाराओं के भक्त कवियों की तरह प्रतीकात्मक और श्रद्धा से संयमित प्रेम को नहीं अपनाया। इनका कृष्ण के प्रति प्रेम जनतांत्रिक प्रकृति का है जहाँ पहली बार परिचय के माध्यम से प्रेम होता है-
`बूझत स्याम कौन तू गोरी।
कहां रहति काकी है बेटी देखी नहीं कहूं ब्रज खोरी। 
काहे कों हम ब्रजतन आवतिं खेलति रहहिं आपनी पौरी। 
सुनत रहति स्त्रवननि नंद ढोटा करत फिरत माखन दधि चोरी। 
तुम्हरो कहा चोरि हम लैहैं खेलन चलौ संग मिलि जोरी। 
सूरदास प्रभु रसिक सिरोमनि बातनि भुरइ राधिका भोरी।।
कृष्ण प्रेम का संयोग वर्णन तो द्रष्टव्य है ही किन्तु साथ ही वियोग शृंगार भी अनुपम है। सूरदास के भ्रमरगीत का एक- एक पद इसका साक्षी है -
`निरखत अंक स्याम सुंदर कै, बार-बार लावति छाती, लोचन जल कागद मसि मिलि कै, है गई स्याम स्याम की पाती।’
इनके वियोग वर्णन में स्वाभाविक गहराई है जो आम आदमी के हृदय को छू जाता है। इनका वियोग चमत्कृत नहीं करता पाठक को संवेदनशील बनाता है। कृष्ण भक्त कवियों ने भ्रमरगीत परंपरा के द्वारा गोपियों और उद्धव के तर्क-वितर्क के माध्यम से सगुण की निर्गुण पर तथा भक्ति की ज्ञान पर विजय स्थापित की है। गोपियाँ जो कृष्ण के लोकरंजक रूप पर मोहित हैं, वे निर्गुण ब्रह्म के उपासक उद्धव पर व्यंग्य करती हैं -
`निरगुन कौन देस को बासी। 
मधु हँसि समुझाय! 
सौंह दे, बूझति साँच न हाँसी। 
को है जनक, जननि को कहियत, कौन नारि को दासी।'
स्त्री मुक्ति का वर्णन
मध्यकाल के सामंती परिवेश में जब स्त्रियाँ घर से निकल भी नहीं सकती थीं, ऐसे में विवाहित गोपियाँ पर पुरुष कृष्ण संग प्रेम करती हैं। वे कृष्ण के साथ रास रचाती हैं। यह ऐसी भक्ति परंपरा है जहाँ मीराबाई जैसी कवयित्री भी लोकलाज तज कर स्त्री मुक्ति का मुखर स्वर बनती हैं। वे स्पष्ट तौर पर घोषित करती हैं कि `मेरो तो गिरधर गोपाल दूसरो न कोई, जाके सिर मोर मुकुट मेरो पति सोई।' उनके प्रेम में मस्ती है, सामाजिक बंधनों की बेबसी नहीं -
`पग घुंघरु बाँध मीरा नाची रे।
मैं तो अपने नारायण की आपहि हो गई दासी रे।
लोग कहैं मीरा भई बावरी, न्यात कहैं कुलनासी रे।'
कृष्ण काव्य धारा लोक रंजक कृष्ण के प्रति प्रेम की गहन अनुभूति का काव्य है। अनुभूति की गहनता के कारण इन कवियों की रचनाएँ मुक्तक पदों में मिलती हैं। इन पदों में उन्मुक्त किस्म का प्रबंध भी दिखाई पड़ता है, इसलिए इन्हें `लीला पद' की विशिष्ट संज्ञा भी दी गई है।
काव्य में ब्रजभाषा की सरसता और मधुरता सर्वत्र विद्यमान है।
सूरदास ने अपने काव्य में श्रृंगार के रसराजत्व का आद्यंत निर्वाह किया है। संतान विषयक रति तथा दांपत्य रति के संयोग- वियोग दोनों पक्षों का सुंदर चित्रण किया गया है। छंदों में दोहा, कवित्त, सवैया आदि का प्रयोग किया गया है। पदों का प्रयोग भी कृष्ण काव्य में अपनी विशिष्ट पहचान रखता है। अलंकारों का भी यहाँ भरपूर प्रयोग हुआ है। श्रृंगार व वात्सल्य पर आधारित लीलाओं को विभिन्न अलंकारों के माध्यम से नए-नए रूपों में प्रस्तुत करने का कार्य इन्होंने किया है। हालांकि अलंकारों के अत्यधिक प्रयोग पर खिन्न होकर रामचंद्र शुक्ल ने टिप्पणी की - `सूर को उपमा देने की झक सी चढ़ जाती है और वे उपमा पर उपमा, उत्प्रेक्षा पर उत्प्रेक्षा करते चले जाते हैं।'
आधुनिक काल में कृष्णभक्ति धारा
हिन्दी साहित्य के आधुनिक काल में कृष्णभक्ति धारा के अनेक कवि मिलते हैं। भारतेन्दु हरिश्चन्द्र की अनेक रचनाओं में कृष्ण का विस्तृत उल्लेख है। वे कृष्ण के सम्बन्ध में प्राचीन और नवीन दृष्टियों के समन्वयकर्ता हैं। उन्होंने कृष्ण की बाललीला, यौवनलीला और उनके प्रेमी रूप का सफल चित्र प्रस्तुत किया है। भारतेन्दु युग के ही एक दूसरे रचनाकार उपाध्याय बदरीनारायण चौधरी `प्रेमघन' ने भी भ्रमरगीत की रचना की है। उनके भ्रमरगीत में कृष्ण के दैन्य और श्रृंगारभाव का चित्रण है।
अयोध्या सिंह उपाध्याय `हरिऔध' ने भी कृष्ण चरित्र से सम्बन्धित अनेक रचनाओं का प्रणयन किया हैं। प्रियप्रवास, कृष्ण शतक, प्रेमाम्बुप्रवाह, प्रद्युम्न विजय और रुक्मिणी परिणय उनकी उल्लेखनीय रचनाएँ हैं। हरिऔध ने अपनी रचनाओं में कृष्ण की महत्ता और गोपियों की विरह-वेदना के चित्रण पर विशेष ध्यान दिया है। प्रियप्रवास खड़ी बोली हिन्दी का पहला महाकाव्य है। इसमें कृष्ण को नवीन परिवेश में प्रस्तुत किया गया है। उनके कृष्ण मानवता के आदर्श हैं।
जगन्नाथदास रत्नाकर का उद्धव शतक कृष्णभक्ति काव्य परम्परा का सुन्दर दूतकाव्य है। इस रचना में भ्रमरगीत की एक नवीन परम्परा का प्रस्फुटन हुआ है। सत्यनारायण कविरत्न ने भी इस क्षेत्र में नवीनता और मौलिकता का परिचय दिया है। इनकी रचना भ्रमरदूतकाव्य पौराणिक कथावस्तु पर आधारित नवीन परिवेश प्रस्तुत करने वाली रचना है। इस रचना में यशोदा के माध्यम से भारतवासियों के लिए मातृ-प्रेम का आदर्श प्रस्तुत किया गया है। इस रचना में न तो उद्धव हैं, न गोपियाँ। डॉ. रामशंकर शुक्ल `रसाल' भी कृष्णभक्ति काव्य रचनाकार हैं। उनकी रचना का नाम भी उद्धव शतक है। इस परम्परा के पं. द्वारका प्रसाद मित्र का कृष्णायन प्रबन्ध काव्य है। यह रचना रामचरितमानस के के अनुरूप सात काण्डों में विभक्त हैं। इस रचना के कथानक का आधार महाभारत और श्रीमद्भागवत है। इसमें श्रीकृष्ण को समाजसुधारक, लोकनायक, आदर्शमानव और लोकव्यवस्थापक के रूप में प्रस्तुत किया गया है। आर.सी.प्रसाद सिंह स्वच्छन्द विचारधारा के कवि हैं। उनकी रचना का नाम १०४ कृष्णचेला है इस ग्रन्थ में कृष्ण के जीवन की अनेक लीलाएं प्रस्तुत गई हैं। 
रामधारी सिंह दिनकर और आलोच्य कवियों ने बाल सहपाठी सुदामा के प्रति श्रीकृष्ण के मैत्री निर्वाह के आदर्श रूप का वर्णन बड़ी रूचि से किया हैं हलधरदास, नन्ददास, जेठमल, अमृतराय, वीर वाजपेयी, गोपाल, आलम, वंशमणि, मुरलीधर श्रीवास्तव, प. नारायण प्रसाद, बिहारीदास आदि ने तो इस प्रसंग को लेकर स्वतत्र खण्ड काव्य ही लिख डाले है, शेष प्रायः सभी कृष्ण भक्त कवियो ने अपने-अपने काव्यों के अनुरूप विस्तार या संक्षेप मे सुदामा की कथा लिखी है। सभी काव्यों के सुदामा प्रसगों का सांगोपाग अध्ययन तो एक स्वतत्र प्रबन्ध का विषय है, जिसमें कृष्ण और सुदामा के मैत्री भाव पर प्रकाश डाला जायेगा।
डॉ विजय पाल सिंह (२०१४) की श्रीमद्भागवत में सुदामा और उनकी पत्नी सुशीला की उन्होंने  हस्तिलखित प्रतियों को इकट्ठा किया जो की `सुबुद्धि' नाम से प्रकाशित हुआ। यदि यह भक्ति ग्रन्थ होता तो यह बदलाव न किया गया होता। कवि यहाँ दिखाना चाहता है कि बुद्धि का सदुपयोग सुदामा की पत्नी के चरित्र की विशेषता है, शील की विशेषता दिखाना उनका लक्ष्य नहीं है। यदि पत्नी प्रेरित न करती तो उनका दारिद्र दूर न होता। यदि (मंत्री, प्रधानमंत्री, राज्यपाल या राष्ट्रपति जो भी आधुनिक दृष्टि से नाम देना चाहे श्रीकृष्ण को दे लीजिए) ऐसे श्रीकृष्ण के पास वे न जाते तो जीवन भर दारिद्रता ही भोगते रह जाते। बस  अंतर यही है कि श्रीकष्ण दिव्य पुरुष थे और भाव सपदा उनके पास पूर्ण थी, इसलिए सुदामा जी के पैरों को धोने का कार्य उन्होने स्वयं किया, सेवकों को नहीं सौपा। सुदामा द्वारा किसी स्वार्थ की सिद्धि वे नहीं चाहते थे। निर्वाचन विषयक प्रसार उनका लक्ष्य नहीं था। निस्वार्थ भाव से उन्होने सुदामा का जीवन परिवर्तित किया था। सुदामा भी कोई बडा स्वार्थ लेकर नहीं गये थे। जीवन यापन की सुविधा ही वे चाहते थे। प्रकृतिस्थ तो उनमें निस्पृहा ही थी। अतः स्वार्थ के आश्रय एक प्रकार से दोनों नहीं थे। माध्यम से नए-नए रूपों में प्रस्तुत करने का कार्य इन्होंने किया है। हालांकि अलंकारों के अत्यधिक प्रयोग पर खिन्न होकर रामचंद्र शुक्ल ने टिप्पणी की - `सूर को उपमा देने की झक सी चढ़ जाती है और वे उपमा पर उपमा, उत्प्रेक्षा पर उत्प्रेक्षा करते चले जाते हैं।'
कृष्ण काव्य परंपरा के अनुशीलन से यह ज्ञात होता है कि कृष्ण कथा तीन स्थलों गोकुल, मथुरा और द्वारिका से जुड़ी हुई हैं। गोकुल, जहाँ कृष्ण का बचपन बीता था। जहाँ उनकी बाल लीला और किशोर लीला संपन्न हुई थीं उनकी इन रसमयी लीलाओं पर माता पिता, गोप गोपी आदि मुग्ध हुए थे। इस बात पर ध्यान देना चाहिए कि मथुरा और द्वारिका में रहने वाले कृष्ण वही नहीं हैं जो गोकुल में थे। मथुरा और द्वारिका में कृष्ण के ऐश्वर्यमयी रूप में निखार आया है। कृष्ण की गोकुल लीला इन दोनों स्थलों की लीला से भिन्न है। कृष्ण काव्य परंपरा में मथुरा और द्वारिका को केंद्र में रखकार काफी कुछ लिखा गया है। सूरदास इसके अपवाद हैं। यद्यपि सूरसागर में उक्त तीनों स्थलों की कृष्ण लीला का वर्णन है पर प्रधानता गोकुल की लीला का है। सूरदास के काव्य में मुख्य रूप से कृष्ण की गोकुल लीला का वर्णन हुआ है। आचार्य रामचंद्र शुक्ल ने लक्ष्य किया था कि ‘वात्सल्य और श्रृंगार के क्षेत्र में तो इस महाकवि ने मानो औरों के लिए कुछ छोड़ा ही नहीं।' ध्यातव्य है कि उक्त दोनों क्षेत्रों का संबंध कृष्ण की गोकुल लीला से ही है। कृष्ण काव्य परंपरा पर बात करते हुए हमें यह ध्यान रखना चाहिए कि कृष्ण कथा की लिखित परंपरा तो है ही, लोकजीवन में भी इस कथा की गहरी पैठ है। आज भी हमें ऐसे लोग मिल जाएँगे जिन्हें कृष्ण कथा की लिखित परंपरा का बोध नहीं है पर लोक जीवन में रचे-बसे कृष्ण की अद्भुत लीलाओं से वे भलीभाँति परिचित हैं। सूरदास ने कृष्ण कथा के लिए दोनों परंपराओं-शास्त्रीय और लोक से आधार ग्रहण किया है। लोक से आधार ग्रहण करने के कारण ही उनके पदों में लोकगीतों का उत्सवधर्मी संगीत मिलता है। केवल इतना ही नहीं, सूरदास ने अपनी कारयित्री प्रतिभा से कृष्ण काव्य परंपरा में काफी कुछ नया भी जोड़ा है। सूरदास ने राधा और कृष्ण के प्रेम के सहज विकास में अनेक नवीन प्रसंगों की उद्भावना की है। कृष्ण और राधा का बाल सखा-सखी रूप सूर की मौलिक उद्भावना है। निःसंदेह कृष्ण काव्य परंपरा में सूरदास की गणना सर्वश्रेष्ठ कवि के रूप में पूरी तरह तर्कसंगत है।
सूरदास के साहित्य में भक्ति के सभी भावों का वर्णन मिल जाता है पर सख्य, वात्सल्य और माधुर्य भाव की भक्ति पर उन्होंने विशेष जोर दिया है। वे श्रीकृष्ण को सखा मानते हैं। उनके बालरूप को सर्वाधिक महत्व प्रदान करते हैं और गोपियों के माध्यम से माधुर्यभाव की भक्ति प्रवाहित करते हैं। सूर के काव्य में राधा स्वकीया हैं और गोपियाँ परकीया। गोपियों का प्रेम अत्यधिक तीव और मर्यादाओं का उल्लंघन करने वाला है।
संदर्भ ग्रंथ 
१.हिन्दी साहित्य और सवेदना का विकास- डॉ.रामस्वरूप चतुर्वेदी, लोक भारती प्रकाशन, इलाहाबाद।
२. हिन्दी साहित्य का इतिहास-स० डॉ. नगेन्द्र, नेशनल पब्लिशिग हाउस, नई दिल्ली।
३. हिन्दी साहित्य की भूमिका- आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी, राजकमल प्रकाशन प्राइवेट लिमिटेड, नई दिल्ली।
डॉ. धर्मेंद्र सिंह

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