साक्षात्कार

साहित्य की  इतनी सारी विधाओं में मुझे ग़ज़ल ने सबसे ज्यादा मुतासिर किया है, इसमें कोई संदेह नहीं है।दरअसल हिंदी ग़ज़ल सांकेतिकता  को महत्व देती है ।

Mar 9, 2024 - 11:57
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साक्षात्कार
Interview

डॉ.भावना हिंदी की सुप्रसिद्ध गज़लगो और आलोचक हैं.अपनी एक दर्जन से अधिक पुस्तकों के साथ उन्होंने हिंदी गजल को सजाने- संवारने और स्थापित करने में अपने महत्वपूर्ण शनाख़्त दर्ज की है . हाल ही में बिहार सरकार ने उनके साहित्य साधना के लिए महादेवी वर्मा पुरस्कार से नवाजा है. यहां प्रस्तुत है उनसे लिए गए साक्षात्कार के संक्षिप्त अंश -

सवाल -  आप उस सफ़र के बारे में बताएँ , जहाँ से आपने ग़ज़ल लिखना शुरु किया।

जवाब -  दरअसल जब भी  ग़ज़ल लेखन की शुरुआत की बात चलती है तो मन में कोई फूल- सा खिल उठता  है। वह वक्त शायद 1986- 87  का रहा होगा! मैं अपनी माँ डाॅ. शांति कुमारी तथा अपने दो बड़े भाइयों के साथ शिवहर (बिहार का अति पिछड़ा जिला) में रहा करती थी। मेरी माँ उन दिनों शिवहर बालिका उच्च विद्यालय की प्रधानाध्यापिका थी। हम लोग वहाँ छोटी रानी साहिबा कैंपस में स्थित किराए के मकान में रहते थे । बड़ी रानी साहिबा की पौत्री हमेशा अपने संबधियो  से मिलने आया करती थी ।उस समय मैं आठवीं कक्षा  में थी। मेरी मुलाकात रानी साहिबा के पौत्री से हुई और उन्होंने अपने ग़ज़ल प्रेम की बात मुझसे कही ।हालांकि उनकी रूचि साहित्य में नहीं थी, परंतु ग़ज़ल सुनना उन्हें बेहद प्रिय था। उनके इस प्रेम ने मुझे भी ग़ज़ल सुनने को प्रेरित किया और मैं रेडियो पर अक्सर ग़ज़ल  सुनने लगी ।ऐ मेरी ग़ज़ल जाने ग़ज़ल, तू मेरे साथ ही चल या ऐसे गुमसुम क्यों रहते हो / किन सोचो में गुम रहते हो... इत्यादि ।बाद के दिनों में हमने रामचंद्र विद्रोही ,जयप्रकाश मिश्र जी  के साथ मिलकर ग़ज़ल की बारीकियों को सीखना शुरू किया । बहुत कोशिश के बावजूद हम काफिया, रदीफ  से अधिक नहीं सीख पाए । 2013 में  ग़ज़ल के छंद शास्त्री दरवेश भारती जी से दूरभाष पर मेरी बातचीत हुई और मैंने उन्हें अपनी कुछ  ग़ज़लें भी भेजी । सच कहूँ, तो ग़ज़ल के अरूज को समझने में उनके द्वारा प्रकाशित पत्रिका ' ग़ज़ल  के बहाने 'का बड़ा योगदान है । इसके बाद से  ग़ज़ल के प्रति मेरी दीवानगी  जुनून की हद तक पहुँच गयी। मैंने गालिब, मीर,फैज,फिराक,,दाग,दुष्यंत के साथ-साथ समकालीन ग़ज़लकारों को भी मनोयोग से पढ़ा।धीरे -धीरे मेरी ग़ज़लें भी निखरने लगी।

सवाल - साहित्य के इतनी सारी विधाओं में ग़ज़ल ने ही आपको क्यों मुतासिर किया?

जवाब - साहित्य की  इतनी सारी विधाओं में मुझे ग़ज़ल ने सबसे ज्यादा मुतासिर किया है, इसमें कोई संदेह नहीं है।दरअसल हिंदी ग़ज़ल सांकेतिकता  को महत्व देती है । जब ग़ज़ल में संकेत से बात कहे जाने की परंपरा शुरू हुई उस समय ग़ज़ल राज दरबारों की भाषा हुआ करती थी , जहाँ  संकेत से बातें करना ही उचित था। लेकिन इस संकेत से बात करने पर ग़ज़ल की कहन और खूबसूरत होती चली गई ।  इसे लोग शेरों की मजबूती के लिए इस्तेमाल करने लगे ।  ग़ज़ल एक वार्णिक छंद है। ये दोहे की तरह मात्रा के दीर्घ ,लघु रूप के प्रति अति कठोर नहीं है। यहाँ कभी कभी दीर्घ रूप को गिराने की छूट भी होती है ,जिसकी वज़ह से यह दोहा की अपेक्षा ज्यादा मुलायम और लचीली होती है। और यही लचीलापन  ग़ज़ल को  संगीतात्मकता के साथ-साथ संप्रेषणीय भी बनाती है।ग़ज़ल का प्रत्येक शेर एक कविता है।
ग़ज़ल में  हम गंभीर से गंभीर बात सिर्फ दो मिसरों में कह देते हैं  और वह लोंगों की जुबान पर चढ़ जाती है । ग़ज़ल में रुचि रखने वाला हर व्यक्ति यह जानता है कि ग़ज़ल की बाहरी और भीतरी  दो संरचना होती है। बाहरी संरचना में हम रदीफ और काफिया की पाबंदी को लेकर शेर के वज्न को जांचने परखने की कोशिश करते हैं, वहीं भीतरी संरचना में विचार संवेदना कल्पनाशीलता इत्यादि के द्वारा हम शेर  कहते हैं ।आज की ग़ज़लें अपने विषय संबधी विविधताओं की वज़ह से हिंदी कविता के समानांतर जगह बनाने की ओर अग्रसर है । आज की ग़ज़लों में  विधवाओं की समस्या से लेकर भूमंडलीकरण, पर्यावरण ,ग्लोबल वार्मिंग, जनसंख्या विस्फोट ,विकलांगता विमर्श इत्यादि ज्वलंत मुद्दों को भी शामिल किया जाने लगा है। ग़ज़ल गागर में सागर भरने की प्रवृति की वज़ह से  पाठक को सीधे-सीधे अपनी तरफ खींचने में पूर्ण समर्थ है। यही वज़ह है कि मैं साहित्य की सारी विधाओं में ग़ज़ल की ओर मुखातिब हुई।

सवाल - लेखक अपने आपको एक कृति में भी अभिव्यक्त कर सकता है, आख़िर ऐसी क्या वज़ह रही कि शब्दों की क़ीमत, अक्स कोई तुम-सा,धुंध में धूप जैसी कई लगातार कृतियों की रचना आपको करनी पड़ी?

जवाब - आपने ठीक कहा कि लेखक अपने आपको एक  कृति से भी  अभिव्यक्त कर सकता है। परन्तु मेरी अबतक अक्स कोई तुम-सा , शब्दों की कीमत, चुप्पियों के बीच, मेरी माँ में बसी है  ...,धुंध में धूप सहित पाँच ग़ज़ल संग्रह प्रकाशित हैं।कोई भी रचनाकार अपनी रचना के द्वारा अपने समय को लिखता है और लगातार खुद को मांजता है।यह सही है  कि गुलेरी जी अपनी एक कहानी के द्वारा ही याद किये जाते हैं तथा दुष्यंत अपने एक मात्र ग़ज़ल- संग्रह 'साये में धूप "की वज़ह से हिन्दी ग़ज़ल में नयी लकीर खींचने में सफल हुए। पर ,आज का जो समय है उसमें सिर्फ एक कृति से हम अपने आप को अभिव्यक्त नहीं कर सकते। क्योंकि हर दिन हर पल एक नया चैलेंज हमारे सामने आकर खड़ा होता है और अलग-अलग समस्याओं का हमें सामना करना पड़ता है। दुष्यंत जब अपनी ग़ज़लें कह रहे थे उस समय आपातकाल था और उसके विरोध में उन्होंने अपनी ग़ज़लें कहीं । लेकिन आज का जो समय है उसमें हम प्रत्येक दिन अलग-अलग समस्याओं से दो-चार होते हैं ।कभी सूखा हमें तबाह करता है ,तो कभी बाढ़ की विभीषिका हमें झेलनी होती है। कहीं अत्यधिक कीटनाशक के प्रयोग से मनुष्यों को भयंकर बीमारियों का सामना करना पड़ रहा है ।अभी ग्लोबल वार्मिंग की वज़ह से पहाड़ स्खलन होने लगे हैं ।आज कई ऐसी समस्याएं हैं जो हमारे सामने मुंह बाए खड़ी हैं। ऐसे में ,एक संग्रह के बाद इतिश्री कर देना ,अपने दायित्व से मुँह मोड़ना है । मेरे विचार से  हम जब तक लिखने में समर्थ हैं , हमें अलग-अलग समस्याओं को केंद्र में रखकर अपनी रचनाएँ लिखते रहना चाहिए और अपने रचनाधर्मिता के द्वारा  समाज के मार्गदर्शन का सतत प्रयास भी करते रहना चाहिए।

सवाल -  ग़ज़ल के कुछ आलोचकों का विचार है कि आपकी कृति मेरी माँ में बसी है, कि  शीर्षक में अधूरेपन का एहसास होता है। आप क्या कहेंगी?

जवाब – आपने सही कहा कि मेरी कृति "मेरी माँ में बसी है..." को लेकर कुछ आलोचक यह कहते हैं कि इसका शीर्षक अधूरा सा है लेकिन अगर आप उसके आवरण पर गौर करेंगे तो आप पाएंगे कि" मेरी माँ में बसी है" के बाद 3 डाॅट हैं  और यह 3 डॉट  यह दिखाता है कि  माँ के भीतर कई चीजें समाहित हैं  जैसे कि  छाया, मंजिल, शक्ति, आशा ,आवाज, चुनौती, नदी इत्यादि। मतलब एक माँ में कई सारे गुण समाहित हैं, जो इसमें  कवर के द्वारा स्पष्ट कर दिया गया है। और जहाँ तक मुझे याद है कि  आपने ही कहीं इस संग्रह की समीक्षा करते हुए  कहा था कि यह अपने तरह का पहला संग्रह है ,जहाँ  कवर में मुँह दिखाई की परंपरा की शुरुआत हुई है।

सवाल - हिन्दी ग़ज़ल में अब तक दुष्यंत का कोई विकल्प नज़र नहीं आता।साये में धूप की रचना 1975 में हुई। तब से लेकर अब तक लगभग 50 वर्षो में कोई एक कृति भी उस जोड़ का न आना, क्या हिन्दी ग़ज़ल के प्रति आपको आश्वस्त करता है?

जवाब – हिंदी ग़ज़ल में अब तक दुष्यंत का कोई विकल्प उभर कर नहीं आता प्रतीत होता है ,यह बात कुछ हद तक सही भी है और कुछ गलत भी। मेरे विचार से कोई भी रचनाकार किसी दूसरे रचनाकार का विकल्प हो ही नहीं सकता। क्योंकि हर रचनाकार अपने समय को लिखता है।मैंने पहले ही कहा कि  दुष्यंत जब लिख रहे थे तो उस समय  आपातकाल का दौर था और उस वक्त जनता के दुख, दर्द ,आक्रोश , बेचैनी को लिखने वाला कोई नहीं था । दुष्यंत  हिंदी कविता से आते थे और इसमें कोई संदेह नहीं कि  हिंदी कविता का फलक बहुत बड़ा है। उन्हें पता था कि अगर इस कथ्य के साथ अगर मैं हिंदी ग़ज़ल में लेखन  करता हूँ  , तो कामयाबी मिल सकती है। उन्होंने  साये में धूप की  भूमिका में स्वयं कहा है कि वह हिंदी और उर्दू के पचड़े में न पड़ते हुए हिंदुस्तानी जुबान में शेर कहना पसंद करते हैं। उन्होंने आम जनता की सारी दुखों, तकलीफों को समझा और उसे जुबान दिया। वह अच्छी तरह से जानते थे कि हिंदुस्तान  के जनमानस का स्वभाव हमेशा ही छंद बद्ध कविता का रहा है ।उनकी रुझान हमेशा ही छंदों की ओर रही है । दुष्यंत से पहले  हिन्दी ग़ज़ल में इस तरह के कथ्य  के साथ लेखन नहीं हुआ था ।अतः जनता ने उसे हाथों हाथ लिया और दुष्यंत रातों-रात हिंदी ग़ज़ल के प्रवर्तक ग़ज़लकार  बन गए।  लेकिन यह कहना कि अभी तक दुष्यंत का कोई विकल्प नहीं है, मुझे मुनासिब नहीं लगता ।क्योंकि सभी रचनाकार अपने तरीके से अपने समय को लिखने के लिए प्रतिबद्ध हैं और ऐसा कर भी रहे हैं । यह तो काल निर्धारण करेगा कि किसकी कितनी क्षमता है? और किसकी पहुँच कहाँ तक जा पाती है।

सवाल - हम कई लेखकों को सिर्फ इसलिए जानते हैं कि उनकी रचना हमारे सिलेबस में हैं ।आपकी ग़ज़लें भी पाठ्यक्रम में शामिल हैं ।एक लेखक का पाठ्यक्रम में शामिल होना कितना महत्वपूर्ण होता है ?

जवाब- अच्छा सवाल है दरअसल जब हम किसी पाठ्यक्रम का हिस्सा होते हैं तो हमारी पहुँच ज्यादा से ज्यादा विद्यार्थियों के पास होता है और यह विद्यार्थी जब उन रचनाओं का पाठ करते हैं तो कहीं -न- कहीं उस का संचार उसकी अगली पीढ़ियों तक भी होता है। तो ,अगर मैं इसे एक वाक्य में कहूँ कि पाठ्यक्रम में लगने भर से किसी भी रचना की पहुँच काफी दूर तक जाती प्रतीत होती है  ,तो उसमें अतिशयोक्ति नहीं होगी।

सवाल - आपके हालिया दिनों में ही बिहार सरकार का महादेवी वर्मा पुरस्कार मिला है । किसी पुरस्कार से लेखक को कितना संबल मिलता है?

जवाब -यह सच है कि हाल के दिनों में मुझे महादेवी वर्मा पुरस्कार से सम्मानित किया गया है। मेरे ख़याल से जब कोई रचनाकार को उसके साहित्य में किये गए कार्य की वज़ह से सम्मानित किया जाता है तो कहीं- न- कहीं उसकी रचनात्मक जिम्मेदारी और बढ़ जाती है और उसे  अब तक के साहित्य में किए गए  कार्य के प्रति थोड़ा संतोष में होता है ।मेरे ख़याल से जब भी कोई सरकारी या गैर सरकारी पुरस्कार किसी रचनाकार को प्राप्त होता है तो उसके भीतर एक ऊर्जा का संचार होता है।साथ में ,उसे इसका भी संतोष होता है कि उसके द्वारा किये गये कार्य को  मान्यता मिल रही है और वह साहित्य के फलक पर एक उद्देश्य के साथ अपनी जगह बनाने में कामयाब हो रहा है।

सवाल - आपकी कुछ आलोचनात्मक पुस्तकें भी आयी हैं ,खासकर कसौटियों पर कृतियाँ और हिन्दी ग़ज़ल के बढ़ते आयाम। इन पुस्तक के बारे में बतायें , आपकी नज़र में ग़ज़ल की कसौटियाँ क्या हैं ?

जवाब- हिन्दी ग़ज़ल के बढ़ते आयाम मेरी एक आलोचनात्मक कृति है ,  वहीं कसौटियों  पर कृतियाँ समीक्षात्मक।  पुस्तक कसौटियों पर कृतियाँ में  मैंने 35 महत्वपूर्ण ग़ज़ल-संग्रहों  की समीक्षा की है ।कसौटी मेरे ख़याल से किसी भी रचना का नीर क्षीर विवेचन करना होता है। और जब हम किसी भी रचना को उसकी कसौटी पर कसते हैं, तो ग़ज़ल में सबसे पहले उसके शिल्प पक्ष को देखते हैं। क्योंकि शिल्प के बगैर कोई भी  ग़ज़ल ग़ज़ल हो ही नहीं सकती है । किसी भी रचना को पहले  उसकी बुनावट और बनावट में ग़ज़ल का स्वरूप धारण करना होगा ।इसके बाद हम उसका कथ्य देखते हैं और कथ्य के बाद फिर उसकी ग़ज़लियत । यूँ कहिए कि उसकी ग़ज़लों में कसावट को ध्यान में रखते हुए निर्णय लेते हैं की ग़ज़ल अपने कहन या फिर  संपूर्णता में किस तरह की है और ग़ज़लकार ने ग़ज़ल को  साधने में कितनी महारत हासिल की है। कसौटियों पर कृतियाँ में मैंने बस इसी को ध्यान में रखकर उसकी विवेचना की है ।जहाँ तक मेरा मानना है कि अभी जहाँ ग़ज़ल है ,वहाँ सिर्फ और सिर्फ उसकी आलोचना करके हम कोई बहुत बड़ा काम नहीं कर लेंगे। क्योंकि जब हम किसी चीज की सिर्फ और सिर्फ आलोचना करते हैं तो कहीं न कहीं वह पूर्वाग्रह से ग्रसित होता है।  कोई भी चीज अपनी  संपूर्णता में बिल्कुल ही खराब हो ही नहीं सकती। कुछ न कुछ अच्छाई उसमें जरूर होती है ।बस हमें उस पर ध्यान रखना होता है कि कितनी चीजें उसमें से अच्छी निकल कर आ रही हैं । जहाँ अच्छाई है, वहाँ बुराई का होना तय है और जहाँ बुराई है, वहाँ  अच्छाई भी जरूर होती है । बस हमें अपनी नज़रिए से उन चीजों को देखना होता है और उसका विवेचन करना होता है ।

सवाल - किसी भी हिन्दी साहित्य का इतिहास पुस्तक में हम ग़ज़ल पर तजकिरा कब तक पायेंगे?

जवाब –  यह हिंदी ग़ज़ल का दुर्भाग्य है कि हिंदी साहित्य के इतिहास  लिखने में इसे अभी तक उपेक्षा का ही सामना करना पड़ा है ।डॉ रामचंद्र शुक्ल का हिंदी साहित्य का इतिहास हो या डॉ .नागेंद्र का। किसी ने भी छान्दस विधा के रूप में हिंदी ग़ज़ल की चर्चा तक करना मुनासिब नहीं समझा। जबकि हिंदी ग़ज़ल इनके इतिहास लिखने के पूर्व से ही काफी लोकप्रिय विधा रही है। हाँ! डॉ मोहन अवस्थी ने हाल ही में अपनी पुस्तक 'हिंदी साहित्य के इतिहास' में हिंदी ग़ज़ल पर एक पृष्ठ लिखा है ,जो सुखद है। धीरे-धीरे ही सही हमें मान्यता मिल रही है ।

सवाल - समकालीन हिन्दी ग़ज़ल के कुछ पॉजिटिव और कुछ निगेटिव बातें बताएँ।

जवाब –  गोपालदास नीरज का यह वक्तव्य कि यदि शुद्ध हिंदी में ग़ज़ल लिखनी है, तो हमें उसका वह स्वरूप तैयार करना होगा जो दैनिक जीवन की भाषा और कविता की भाषा की दूरी को मिटा सके ।मैं उनके इस कथन से बिल्कुल सहमत होते हुए यह कहना चाहूंगी कि  ग़ज़ल न ही संस्कृतनिष्ठ भाषा को पसंद करती है और न ही अत्यधिक उर्दू फारसी वाली  शब्दावली को। ग़ज़ल एक बेहद मुलायम भाषा से निर्मित होती है, जो अपने प्रवाह के अनुसार शब्द स्वयं ढूंढ लेती है जैसे  पहाड़ों से उतरती हुई नदी हहराती हुई अपना रास्ता स्वयं बनाती चलती है।हिन्दी ग़ज़लकार को भाषा के प्रति सचेत रहना चाहिए। हिन्दी ग़ज़ल आज सबसे लोकप्रिय विधा है।चूँकि यह संकेतों से बात करने की हिमायती है इसलिए इसे  आज के संश्लिष्ट समय में अभिधा में बात करने की छूट मिलनी ही चाहिए। यह समय की मांग है और ग़ज़लकार इसे अपना भी रहे हैं।समय के साथ हर चीज में परिवर्तन होता है।इस परिवर्तन को जो विधा आत्मसात करती है ,वही जीवित रहती है ।पर,शिल्प से समझौता मुझे कत्तई स्वीकार नहीं।

सवाल - ग़ज़ल के लिए शिल्प, कथ्य और भाषा का क्या महत्व है?

जवाब – मैंने पूर्व में ही इस प्रश्न की बाबत कुछ बातें विस्तार में बताई हैं। संक्षेप में ,आप इसे प्रकार समझ सकते हैं " ग़ज़ल के लिए शिल्प उसका शरीर है, तो कथ्य उसकी आत्मा । जिस प्रकार शरीर और आत्मा को साकार रूप में आने के लिए माँ के गर्भ की आवश्यकता होती है। उसी प्रकार कथ्य और शिल्प को भाषा के गर्भ में पल्लवित पुष्पित होना होता  है ताकि ग़ज़ल में ग़ज़लियत कायम हो सके।

सवाल - जब आपको कोई स्त्री के नज़रिये से आपकी रचना का मूल्यांकन करता है तो आपको कैसा लगता है?

जवाब -  सच कहूँ तो बहुत बुरा लगता है।लेखक लेखक होता है, वो स्त्री-पुरुष नहीं होता। जब नारी आज हर क्षेत्र में कदम से कदम मिलाकर साथ चल रही है, बाहर के काम सम्भाल रही है, चुनौतियों का सामना कर रही है, ऐसे में ,उसकी मात्र "नारियों" से तुलना करना एक घिसा-पिटा सोच है। पुरुष और नारी दोनों के अनुभव आज एक जैसे हैं इसलिए रचनाओं की विषय-वस्तु भी एक जैसी है। लेखन की भी महिलाओं को भरपूर आजादी है और पुरुषों के साथ नारी-विमर्श की भी। मेरी पुस्तकों में, आलेखों में, आलोचनाओं में, समीक्षाओं में पुरुष लेखकों की भरपूर शुमारी है। फिर भी मेरे समग्र लेखन को कोई महिला ग़ज़लकार की नजरिये से देखे तो बुरा लगना स्वाभाविक है।

सवाल - हिंदी ग़ज़ल का कुछ नाम जो आपको भरोसा दिलाता हो...

जवाब – यह सवाल सबसे कठिन है।जिनका नाम छूटता है, वही नाराज़ हो जाते हैं। पर ,एक साथ सभी का ध्यान हमें रहे ही, मुमकिन नहीं है। हाँ! उनमें से  कुछ जरूरी नाम मैं आपको बता रही हूँ  अनिरुद्ध सिन्हा ,वशिष्ठ अनूप, हरेराम समीप, विज्ञान व्रत ओमप्रकाश यती ,ज्ञान प्रकाश विवेक, कमलेश भट्ट कमल, विनय मिश्र, धर्मेंद्र गुप्त साहिल, विनोद गुप्ता शलभ , डाॅ राकेश जोशी , दिनेश प्रभात, प्रेम किरण  ,जियाउर रहमान जाफरी ,के पी अनमोल  , पंकज कर्ण, अभिषेक सिंह ,राहुल शिवाय , विकास, सोनरूपा विशाल, गरिमा सक्सेना ,मालिनी गौतम, अविनाश भारती ,  कुमार विजय इत्यादि।

सवाल - मंचों के माध्यम से हिन्दी ग़ज़ल का कितना भला हो सकता है?

जवाब – मंचों के माध्यम से हिंदी ग़ज़ल का भला होता हुआ  मुझे नहीं दिखाई पड़ता है । क्योंकि मंच  की अलग दुनिया है और पत्र-पत्रिकाओं की अलग। मंच पर शोहरत के साथ वाहवाही और पैसे मिलते हैं । पैसों के लिए लोग  सस्ती रचनाओं का पाठ करने लगे हैं, जो बेहद दुखद है ।पहले ऐसा नहीं था। आज मंच का हाल बहुत बुरा है। याद रखिए सफलता का कोई शॉर्टकट नहीं होता। लेखन का ग्लेमराइजेशन उचित नहीं है। कुछ इश्किया शायरी की और उसे तरन्नुम में गा करके रातों-रात  स्टार हो जाना भले आसान हो पर स्थायी नहीं। हमें स्थायी सफलता के  लिए कठोर साधना करनी होती है और दिन-रात की सतत मेहनत से ही अपनी मंजिल को पाया जा सकता है।

सवाल - कुछ छात्र आपकी ग़ज़लों पर शोध कर रहे हैं। जब आप पहली बार पीएचडी का हिस्सा बनीं तो आपको कैसा महसूस हुआ?

जवाब – पी.एच-डी का हिस्सा होना किसी भी रचनाकार के लिए गौरव का विषय है ।जब  हमारी रचनाएँ शोध का विषय बनती हैं तो हमारी रचनाओं का कैनवास काफी बड़ा हो जाता है। उसकी अच्छाई और कमियाँ दोनों की समान रूप से चर्चाएँ होती हैं। मुझे जब पहली बार पता चला कि मेरी ग़ज़लों पर शोध हो रहा है तो  बेहद खुशी हुई। लिखने की सार्थकता भी यही है।

सवाल - क्या आपको नहीं लगता कि ग़ज़ल के शोध के नाम पर सिर्फ एक -दूसरे की कॉपी हो रही है?

जवाब - यह बात सही है कि साहित्य के हरेक विधा में शोध के नाम पर आजकल एक दूसरे की कॉपी की जाती है, जो बेहद अफसोसजनक है । मुझे लगता है कि  नये विषय और नये रचनाकार पर शोध होने से स्वतः  कॉपी पेस्ट का मामला समाप्त हो जाएगा और शोध कार्य के लिए मेहनत करनी ही होगी।

सवाल - अंत में , यह बताएँ कि आप भविष्य में और क्या लिखने का इरादा रखती हैं। कभी आत्मकथा या उपन्यास भी लिखने का इरादा है क्या?

जवाब - भविष्य में क्या लिखना चाहती हूँ उसकी बाबत  मैं कहना चाहूंगी कि मेरे भीतर बहुत कुछ कुलबुला रहा है। मुझे नहीं पता कि वह किस तरह से सृजित होगा ? वह चीजें ग़ज़ल के फॉर्म में आएंगी या आत्मकथा, कहानियाँ  और उपन्यास के फार्म में। पर, इतना सच है कि मेरे भीतर एक अलग तरह की बेचैनी है और वह बेचैनी किसी सृजन के पहले का संकेत है।

डॉ. ज़ियाउर रहमान जाफरी

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