धर्म-विमुखता - हमारे सामाजिक पतन का कारण
This article reflects on the disconnection from religion in modern society and the neglect of Sanatan Dharma scriptures. It explores the true meaning of dharma, Nishkama Karma Yoga from the Bhagavad Gita, and the societal impact of losing religious awareness.
कुछ महीनों पूर्व कार्यालयीन कार्य से एक व्यक्ति मुझसे मिलने आया। कार्यालयीन वार्तालाप के पश्चात् सहज बातचीत में उसके धर्म-विरूद्ध टिप्पणी (जो कदाचित् उसके अल्पज्ञान के कारण थी) पर मैंने उसे टोका कि ऐसा तो बिल्कुल भी नहीं है, मैंने उक्त अभद्र टिप्पणी का प्रमाण मॉंगा, तो उसने कहा कि भविष्य में वह कभी इसका प्रमाण देगा (हालॉंकि लगभग ८ माह बीत जाने पर भी उसका कोई प्रमाण नहीं आया, क्योंकि जो असत्य ही है, अज्ञान ही है, उसे सिद्ध करना भी टेढ़ी खीर है)। मैंने उससे यह जानना चाहा कि जीवन में सनातन धर्म-विषयक कौन से ग्रंथों का उसने आज तक अध्ययन किया है, तो वह बगलें झॉंकने लगा था। फिर मैंने उससे और आसान-सा प्रश्न पूछा कि वेदों की संख्या कितनी है, आश्चर्य! वह इसका भी उत्तर नहीं दे सका था। फिर मैंने प्रश्न को और सरल करके यह पूछा कि किसी एक वेद का नाम ही बता दो, तो उसने कहा कि नहीं, मुझे किसी वेद का नाम तक भी नहीं पता!
दिखने को यह घटना ऊपरी तौर पर अत्यंत छोटी दिखाई देती है और एकबारगी उपेक्षित करने लायक भी लगती है, मगर यह कई सारे अत्यंत गंभीर प्रश्न उपस्थित करती है। आखिर हमें हो क्या गया है? हम अपने धर्म से इतना विमुख क्यों होते जा रहे हैं? जो मेधा, एक समय विश्व में अपना लोहा मनवाती थी, उसकी इतनी दुर्गति क्यों होती जा रही है? हमारे साहित्य, हमारी वेशभूषा, हमारी भाषा, हमारी विचारधारा, हमारे विवेक को आखिर कौन दिन-प्रतिदिन हरता जा रहा है? हममें से अधिकांश लोग इन सबका यही उत्तर देंगे कि इसके लिए पश्चिमी सांस्कृतिक एवं भोगवादी हमले उत्तरदायी हैं, मगर मात्र यह कहने-भर से क्या हमारी कर्त्तव्यों की इतिश्री हो जाती है? क्या हमने कभी विचार किया है कि उन हमलों के लिए हम क्यों तैयार नहीं थे अथवा कि हमने उन हमलों को अपने ऊपर आरोपित कैसे होने दिया और हम मूकदर्शक बने देखते रहे?
हमें यह विचार करना चाहिए कि हम दिन-भर में ऐसा कौन सा आचरण करते हैं, ऐसा कौन सा कार्य करते हैं कि हम सनातनी हिन्दू कहलाएंं! हमारी दिनचर्या को गंभीरता से देखें तो अत्यंत अल्प संख्या में लोग होंगे, जो नियमित धर्म-विषयक स्वाध्याय करते हैं, धार्मिक चर्या करते हैं या फिर उसके तात्विक ज्ञान की क्षुधा रखते हैं। गीता में भी भगवान श्रीकृष्ण अध्याय ७ के श्लोक क्रमांक ३ में कहते हैं कि ‘‘हजारों में कोई एक ही होता है, जो सिद्धि (कल्याण) के लिए प्रयत्न करता है और उन सिद्धों में से कोई एक ही मुझे तत्व से जानने की इच्छा रखता है।’’ इसका अर्थ यह नहीं कि भगवान को प्राप्त करना कठिन है, बल्कि हमने ही परमात्म-प्राप्ति को उपेक्षित कर रखा है।
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कुछ लोगों का यह विचार भी होता है कि ‘कर्म ही पूजा है’, हमने तो यही पढ़ा है, इसलिए हम हमारी नौकरी और काम-धंधे को ही अपनी पूजा (धर्म) मानते हैं। इस अर्थ यह हुआ कि हमने धर्म को भी व्यापार समझने की भूल कर दी है। पढ़ना और गुनना दो अलग बातें होती हैं। कौन सी बात को कहॉं पर किस संदर्भ में लागू किया जाए, यह बात तभी पता चलती है, जब या तो हम विधिवत किसी योग्य धर्मगुरु के सानिध्य में धर्म की शिक्षा लें (जो कि इस समय अत्यंत कठिन हो गया है, क्योंकि अंग्रेजों के समय गुरुकुल समाप्त हो चुके हैं) अथवा हम स्वयं ‘केवल प्रामाणिक ग्रंथों' की सहायता से स्वाध्याय करें। `कर्म ही पूजा है' - यह कथन उचित तो है, मगर समुचित नहीं, क्योंकि जिस संदर्भ में यह बात की गई है, वह ‘निष्काम कर्म योग’ है, क्योंकि श्रीमदभगवतगीता में जगतगुरु भगवान श्रीकृष्ण निष्काम कर्मयोग को भी ईश्वरीय खोज के एक साधन के रूप में निरूपति करते हैं। निष्काम कर्म केवल वे कर्म होते हैं, जो कि बिना किसी अपेक्षा के समाज की भलाई के लिए किए जाएं, जो कर्म स्वयं भगवान को अर्पण करने योग्य हों एवं जिन कर्मों के फल में हमारी कोई आसक्ति न हो।
धर्म से विमुख होना हमारे समाज के लिए कितना घातक होता जा रहा है, इसका अंदाज़ा हमको तभी लग पाता है, जब हम अपने ही देश का इतिहास खंगालते हैं। हमारे धर्म का ह्रास होने के कारण हम अपने ही देश में हाशिये पर जाते जा रहे हैं। आज की पीढ़ी, धर्म को या तो ढकोसला मान रही है या फिर साम्प्रदायिक, क्योंकि आपकी मेधा का ही अपहरण कर लिया गया है।
दुर्गेश कुमार ‘शाद'
इन्दौर, मध्य प्रदेश
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