कविता

आत्मा और शरीर

गई थी वस्त्र फैलाने, भाग कर झट से तू आई,

नारी की अभिलाषा

महिला बिन पुरुषों का अस्तित्व भला नज़र कहीं आता है

जिंदगी

बैठी हूँ वक्त की टहनी पर परिन्दों की तरह उड़ जाने को

बुजुर्ग

दादी सुकून घर की शान रही दुर्भाव नहीं।।

जीवन का न कोई ठिकाना

संग सांसों का अनमोल खजाना लुट जाए कब यह कोई न जाना

स्त्रियां

लेती है रूप  मां  सरस्वती का ज्ञान के अमिट प्रकाश के लिए। और होती है प्रकट मां...

परछाई

मेरे भीतर, भीतर घना कोहरा था मगर वैसा नही, जैसा बाहर होता है,

" अकेलापन मेरा रहबर "

दीवारों से गले लग कर कर लेती हूँ मन हल्का ।

मां है ममता की मूरत

नौ माह तक बच्चों को गर्भ में रखती है न जाने कितने दुखों को सहती है, झेलती है फ...

वो दौर

घर मे सुकून रहता था, ख़ुद मे जुनून रहता था।

संतुलन बनाकर

डोर किसी के हाथ सधी, हम बने हुए कठपुतली। नाच रहे ज्यों हम ख़ुद हों,

भीतर का मौसम

टँगे रहा करते थे जिन पर दिन अपने बहुरंगे।  लुप्त हो गए शनैः शनैः 

संबंधों के धागे

अक्सर घिरा समस्याओं से, किन्तु किसी को नहीं जताया।

शीर्षक (मानवता)

शीर्षक (मानवता) (सचिन कुमार सोनकर)

शब्द और वाक्य

खो जाना चाहती हूं मैं किसी किताब के पन्नों के बीच

प्यारी मां

तेरी इस अलौकिक छवि के पीछे छुपे हैं सैंकड़ों त्याग जिन्हें चाहे अनचाहे तूने ब...