Posts

हम से मैं तक

जब व्यक्ति समाज और अपने संबंधियों से जुड़ा होता है तो एक समूह का हिस्सा होता है ...

परछाई

मेरे भीतर, भीतर घना कोहरा था मगर वैसा नही, जैसा बाहर होता है,

पहली बोलती फिल्म की खो गई आवाज

उस फिल्म का नाम 'आलम आरा' (विश्व का प्रकाश) है और उस चीज का नाम है बेल एंड होवेल...

महाराणा प्रताप

महाराणा प्रताप ने जब सत्ता संभाली थी उस समय अनेक कठिनाइयाँ  सामने थीं। सिंहासन त...

" दर्पण समाज का "

तभी उन तथाकथित मौसी को अपनें वो दिन याद आ गए जब उनके बड़े लड़के की नियुक्ति बैंक...

" अकेलापन मेरा रहबर "

दीवारों से गले लग कर कर लेती हूँ मन हल्का ।

प्रेम भरी पाती

से ही पाती के नायक का सरनेम लिखने लगी थी । नेहा के दिल में अपने प्रेमी के लिए प्...

मां है ममता की मूरत

नौ माह तक बच्चों को गर्भ में रखती है न जाने कितने दुखों को सहती है, झेलती है फ...

वो दौर

घर मे सुकून रहता था, ख़ुद मे जुनून रहता था।

सही शिक्षा से जागृति लाकर अंधविश्वास मिटाये

ढोंगी एवं पाखंडी लोग जादू-टोने के नाम पर जनसामान्य को बेवकूफ बनाते है। इसके लिए ...

संतुलन बनाकर

डोर किसी के हाथ सधी, हम बने हुए कठपुतली। नाच रहे ज्यों हम ख़ुद हों,

भीतर का मौसम

टँगे रहा करते थे जिन पर दिन अपने बहुरंगे।  लुप्त हो गए शनैः शनैः 

संबंधों के धागे

अक्सर घिरा समस्याओं से, किन्तु किसी को नहीं जताया।

गज़ल

शीर्षक (मानवता)

शीर्षक (मानवता) (सचिन कुमार सोनकर)

शब्द और वाक्य

खो जाना चाहती हूं मैं किसी किताब के पन्नों के बीच