कविता

वो दौर

घर मे सुकून रहता था, ख़ुद मे जुनून रहता था।

संतुलन बनाकर

डोर किसी के हाथ सधी, हम बने हुए कठपुतली। नाच रहे ज्यों हम ख़ुद हों,

भीतर का मौसम

टँगे रहा करते थे जिन पर दिन अपने बहुरंगे।  लुप्त हो गए शनैः शनैः 

संबंधों के धागे

अक्सर घिरा समस्याओं से, किन्तु किसी को नहीं जताया।

शीर्षक (मानवता)

शीर्षक (मानवता) (सचिन कुमार सोनकर)

शब्द और वाक्य

खो जाना चाहती हूं मैं किसी किताब के पन्नों के बीच

प्यारी मां

तेरी इस अलौकिक छवि के पीछे छुपे हैं सैंकड़ों त्याग जिन्हें चाहे अनचाहे तूने ब...

अनमोल दीपक

अपने जीवन काल में मैंने कभी ऐसा  नहीं देखा है कि बारहों महीने में किसी दिन तु...

माँ अब बूढ़ी होने लगी हैं...

पिताजी की हठ पर अब माँ खीझ जाती हैं... काम करते-करते अब कई बार झीक जाती हैं...

मां

ममता मीठी खांड सी। ममता है अंबार ।

गर्भनाल या प्लेसेंटा

भिन्न-भिन्न प्रकार की मायें माँ प्रकृति के वृक्षस्थल पर

भोजन की कीमत

स्वाद  लेकर खा  रहा  रेस्त्रां में नौजवान, नज़रे उस पर टिकी शायद हो मेहरबान।

जिंदगी की कश्मकश

सुर  सुरा  सुंदरी  से महक  रही थी जिंदगी 

पुरानी किताबें और स्मृतियां

दायित्वों के बोझ तले, इक अरसा हुआ बिना मिले। घनिष्ठ मित्रता थी जिनसे, दायित्व...

मैं भारत हूं

मैं भारत हूं, मैं भारत हूं ,मैं भारत हूं , भारतीय सभ्यता संस्कृति की मैं विरासत...

बारिश जैसी है तुम्हारी याद

बिजली की चमक से  कौंध उठता है अतीत।