ग़ज़ल : दोस्त ही मिलते नहीं
ग़ज़ल : दोस्त ही मिलते नहीं
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ग़ज़ल : दोस्त ही मिलते नहीं

मुश्किलों में साथ दें वो, दोस्त ही मिलते नहीं हैं,
गर्दिशों में है सुदामाकृष्ण जी मिलते नही हैं।

प्राण का बलिदान देकर, हो गया जग में अमर जो,
अब समर में कर्ण जैसे वीर भी मिलते नही हैं।

हारते हैं रोज अर्जुन, ज़िंदगी की जंग में अब,
पार्थ को भी कृष्ण जैसे, सारथी मिलते नही हैं।

साथ रहना है  हमें तो, दिल का मिलना है जरूरी,
जो दिलों को जीत लें वो, आदमी मिलते नही हैं।

व्याकरण के ग्रंथ लिखकर, जो करें भाषा शुशोभित,
आज के इस दौर में वो, पाणिनी मिलते नही हैं।

जिस निगाहे शोख पर थे, हम हुए आसक्त यारों,
अब किसी कूचे में ऐसे, दिलनशी मिलते नही हैं।

बात वो ऐसी करें की, काट दे लंबा सफर जो,
अब किसी भी ट्रेन में वो, अजनबी मिलते नही हैं।

व्याधियों से ग्रस्त हैं सब, है “जिगर” कोई न औषध,
ला सकें संजीवनी वो, मारुती मिलते नही हैं।

@ मुकेश पाण्डेय “जिगर” – अहमदाबाद

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Written by Sahitynama

साहित्यनामा मुंबई से प्रकाशित साहित्यिक पत्रिका है। जिसके साथ देश विदेश से नवोदित एवं स्थापित साहित्यकार जुड़े हैं।

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