धर्माडंबर के नशे में,
धर्माचरण कर नहीं पाएंगे,
बहुत हुआ धंधा धर्म का,
मर्म सबको समझायेंगे,
त्याग अहं स्वधर्म का,
मूल मनुज धर्म अपनायेंगे,
विप्लव का शंखनाद करने,
फिर से गाँधी आयेंगे
फिर से गाँधी आयेंगे।
है हम सब अंश एक ब्रह् म का,
नफरत का दंश नही फैलायेंगे,
कह रहा कुरान यही,
गीता यही सिखाती है,
कर प्रेम दीन से,
पीर यूंही खुश हो जायेंगे,
पतितों को पावन करने,
फिर से गाँधी आयेंगे,
फिर से गाँधी आयेंगे।
जगमग कर रहे मंदिर – मस्जिद,
घर में अपने तो अंधियारा है,
गाय हमारी, बकरा तुम्हारा,
यहां जानवरों तक का बटवारा है,
पर खींच लकीरें जाति-धर्म की,
हमको बांट नही पायेंगे,
भाईचारे का बीज बोने,
फिर से गांधी आयेंगे,
फिर से गाँधी आयेंगे।
ये धरती है बुद्ध की,
अहिंसा जिसने सिखाई है,
ये धरती है श्रीराम की,
बेर सबरी की जिसमे खाई है,
ये धरती है मोहोब्बत की,
शांति का गीत गुनगुनाएंगे,
लेकर पैगाम सहिष्णुता का,
फिर से गाँधी आयेंगे,
फिर से गाँधी आयेंगे।
छटेगा अंधियारा भ्रम अज्ञान का,
द्वेष, घृणा, निज स्वार्थ को मिटाएंगे,
लेकर ईंट मंदिर-मस्जिदों से,
आशियाना किसी अनाथ का बनाएंगे,
जात पात धर्म भुलाकर ,
नफरत को दफनायेंगे,
रामराज्य का स्वप्न लिए,
फिर से गाँधी आयेंगे।
फिर से गाँधी आएंगे।
विकास सिंह श्रीनेत