ज्वलंत ज्वाला सुलगे है तुझमें
क्यूँ चिंगारियों से घबराती हैं?
शक्ति के भंडार से सजी तु
तु हि जगत जननी कहलाती है।
दिनकर है तु स्वयंम प्रकाशित सी
तारों की मांग क्यूँ कर जाती है?
कर्म पथ पर चले वीर योद्धा बनकर
क्यूँ छोटी उलझनों से डर जाती है?
गंगा सी निर्मल अविरल धारा तु
सागर में मिलकर अपना वजूद मिटाती है।
सावन की रिमझिम फुहार सी बरसकर
प्यास से तपती मिट्टी की क्षुदा बुझाती है।
तुने घुंगरू की झनकार बनकर, न जाने
कितनो के हृदयों के तार को छेड़ा है
हुस्न और हया की क्या कोई देगा दुहाई
देखकर तुझे नज्म का हर लफ्ज़ उसने जोड़ा है
नभ में, थल में और जल में भी
तु अपना आधिपत्य जताती है
कोई क्या दे तुझे? तु हि बता दें
तु पूर्ण स्वरूपा तुझसे ही सृष्टि बन जाती है
सांची नितिन शर्मा