National Poet Ramdhari Singh ‘Dinkar’
राष्ट्रीय आदर्शों को प्रभावी रूप से प्रस्तुत करने वाले राष्ट्र- प्रेरक काव्य के रचयिता होने के कारण ही भारत सरकार ने विधिवत रूप से रामधारी सिंह `दिनकर’ को राष्ट्रकवि घोषित की। वे इस रूप में सर्वमान्य कवि हैं। वे हिन्दी साहित्यकाश के दैदीप्यमान मार्तण्ड हैं। सांस्कृतिक एवं राष्ट्रीय पक्ष की प्रमुखता को लेकर हिन्दी में जिन कवियों ने रचनाएं की हैं,उनकी एक अलग उपधारा है और इस उपधारा के प्रमुख कवि रामधारी सिंह `दिनकर’ हैं। वे शौर्य और ओज के कवि हैं।
एक प्रख्यात समालोचक ने लिखा है-`दिनकर के प्रारंभिक काव्य चरण में स्वच्छन्दतावादी काव्य के दो तत्व-रोमानीवृत्ति और राष्ट्रीय सांस्कृतिक चेतना मुख्य रूप से दिखाई पड़ते हैं किन्तु प्रारंभ से ही वे अपने स्वतंत्र व्यक्तित्व के निर्माण के प्रति सचेत रहे और इस कारण वे उदात्त भूमियों पर संचरण करने में सफल हुए `वे ऊर्जस्वित युग-चारण कवि के रूप में ही अधिक प्रतिष्ठित हैं। `रेणुका ‘ के प्रकाशन के बाद १९३५ ईस्वी में इन्हें हिन्दी काव्य-जगत में पूर्ण स्वीकृति मिली। इसमें राष्ट्रीय चेतना के प्रखर स्वर के साथ ही छायावादी रोमांटिकता का भी आभास मिलता है। दिनकर की वाणी का वास्तविक ओज इनकी कृति `हुँकार’में मिलता है। एक युग-चारण के रूप में युद्ध-घोष और समरभूमि की ललकार `हुँकार’ की विशेषता है। `रसवंती’ इनकी वैयक्तिक भावनाओं से युक्त श्रृंगार परक काव्य-संग्रह है। `द्वन्द्वगीत’ में `दिनकर’ ने निरन्तर सक्रिय द्वन्द्व चेतना का प्रतिपादन किया है। `सामधेनी’अनेक विषयों पर लिखी कविताओं का संग्रह है। वे जितने सफल कवि थे, उतने ही सफल गद्य लेखक भी थे। उनकी गद्य और पद्य की २८ से अधिक कृतियाँ प्रकाशित हुई।
अपने काव्य-संग्रह `चक्रवाल’ में उन्होंनें लिखा है-`जहाँ तक याद है, कविता लिखने की प्रेरणा मुझमें नाटक और रामलीला देखकर उत्पन्न हुई। जब भी मैं नाटक वालों के मुख से गीत सुनता, दूसरे दिन उसी धुन में एक नया गीत बना लेता।’ इनके अलावे कविता सृजन की प्रेरणा उन्हें हिन्दी और अहिन्दी कवियों के प्रभाव एवं तत्कालीन राजनीतिक और सामाजिक परिस्थितियों के प्रभाव से भी मिली।
हिन्दी कवियों में तुलसीदास,मैथिलीशरण गुप्त, माखनलाल चतुर्वेदी, रामनरेश त्रिपाठी, सुभद्रा कुमारी चौहान और बालकृष्ण शर्मा `नवीन ‘ का एवं अहिन्दी कवियों में शैली, वडर्सवर्थ, रवीन्द्रनाथ, नजरूल, इकबाल और जोश का इनपर काफी प्रभाव पड़ा। प्रख्यात साहित्यकार और समालोचक डॉक्टर रामदरश मिश्र ने दिनकर जी के सम्बन्ध में लिखा है-
`दिनकर में संवेदना और विचार का बड़ा सुन्दर समन्वय दिखाई पड़ता है। चाहे व्यक्तिगत प्रेम-सौन्दर्यमूलक कविताएं हो,चाहे राष्ट्रीय कविताएं, सभी कवि की संवेदना से स्पन्दित है।
दिनकर में आरम्भ से ही अपने को अपने परिवेश से जोड़ने की तड़प दिखाई पड़ती है, इसलिए उनमें सर्वत्र एक खुलापन है, सहजता है, लोकोन्मुखता है-व्यक्तिगत प्रेम-सौन्दर्यमूलक कविताओं में भी ।
छायावाद या उत्तर-छायावादी वैयक्तिक कविता की कुण्ठा,अतिरिक्त अवसाद तथा निराशा के घेराव के स्थान पर प्रसन्न्ता और सर्वत्र सौन्दर्य के प्रति स्वस्थ मानवीय प्रतिक्रिया दिखाई पड़ती है। दिनकर की सबसे बड़ी विशेषता है-अपने देश और युग-सत्य के प्रति जागरूकता। कवि देश और काल के सत्य को अनुभूति और चिंतन दोनों स्तरों पर ग्रहण करने में समर्थ हुआ है। कवि ने राष्ट्र को उसकी तात्कालिक घटनाओं,यातनाओं, समताओं आदि के रूप में ही नहीं,उनकी संश्लिष्ट सांस्कृतिक परम्परा के रूप में पहचाना है और उसके प्राचीन मूल्यों का नये जीवन-संदर्भों के परिप्रेक्ष्य में आकलन कर एक ओर उन्हें जीवन्तता प्रदान की है,दूसरी ओर वर्तमान की समस्याओं और आकांक्षाओं को महत्व देते हुए उन्हें अपने प्राचीन किन्तु जीवन्त मूल्यों से जोड़ना चाहता है। दिनकर ने राष्ट्रीयता की पहचान को मात्र भावनात्मक प्रतिक्रिया से उबारकर चिंतन, परीक्षण तथा आत्मालोचन का स्वस्थ रूप देने का प्रयत्न किया, साथ ही इस राष्ट्रीयता के सार्वभौम मानवता के रूप में विकसित होने का स्वप्न देखा। यह विकास तभी सम्भव है जब बुद्धि के ऊपर संवेदनशील हृदय का शासन हो।’ ये लोकप्रिय जनकवि थे। उनकी कविताओं में आम लोगों,मजदूरों तथा किसानों की पीड़ा भी स्पष्ट दिखाई पड़ती है। किसानों की तत्कालीन दुर्दशा का चित्रण अपनी कृति `हुँकार’ में उन्होंने इस प्रकार किया है-
`जेठ हो की पूस,हमारे कृषकों को आराम नहीं है,
छूटे कभी संग बैलों का, ऐसा कोई याम नहीं है।
मुख में जीभ, शक्ति भुज में,जीवन में सुख का नाम नहीं है,
वसन कहाँ? सूखी रोटी भी मिलती दोनों शाम नहीं है।’
मजदूरों तथा कृषकों पर लिखी उनकी इन मार्मिक पंक्तियों को भी पढ़िए-
`आरती लिए तू किसे ढ़ूँढ़ता है मूरख ,
मन्दिरों में, राजप्रासादों में, तहखानों में ,
देवता कहीं सड़कों पर गिट्टी तोड़ रहे ,
देवता मिलेगें खेतों में, खलिहानों में।’
उनकी प्रसिद्ध कविता `कविता की पुकार’ की इन पंक्तियों को पढ़िए-
`कवि! आषाढ़ के इस रिमझिम में
धनखेतों में जाने दो ,
कृषक-सुंदरी के स्वर में अटपटे गीत
कुछ गाने दो।
दुखियों के केवल उत्सव में इस दम पर्व मनाने दो,
रोउँगी खलिहानों में,खेतों में तो हर्षाने दो ।’
तथा
`सूखी रोटी खाएगा जब कृषक खेत में धर कर हल,
तब दूँगी मैं तृप्ति उसे बनकर लोटे का गंगाजल।
उसके तन का दिव्य स्वेदकण बनकर गिरती जाउंगी,
और खेत में उन्हीं कणों से मैं मोती उपजाउंगी। ‘
`रश्मिरथी’ दिनकर द्वारा रचित प्रसिद्ध खण्ड काव्य है। इसमें कवि ने कर्ण की महाभारतीय कथानक से ऊपर उठकर उसे नैतिककता और विश्वसनीयता की नयी भूमि पर खड़ा कर उसे गौरव से विभूषित कर दिया है। दिनकर ने अपने शब्दों में , कर्ण-चरित्र का उद्धार, एक तरह से नई मानवता की स्थापना ही है ।
`रश्मिरथी’ की इन पंक्तियों को पढ़िए-
`तेजस्वी सम्मान खोजते नहीं गोत्र बतलाके ,
पाते हैं जग से प्रशस्ति अपना करतब दिखलाके ,
हीन मूल की ओर देख जग गलत कहे या ठीक,
वीर खींचकर ही रहते हैं इतिहासों में लीक। ‘
तथा
`प्रासादों के कनकाभ शिखर,
होते कबूतरों के ही घर,
महलों में गरुड़ न होता है,
कंचन पर कभी न सोता है।’
एवं
कर्ण के जातीय परिचय की आड़ में
कृपाचार्य द्वारा जब वैयक्तिकता के
उद्घोष के स्वर को शमित करने का
पुनः प्रयास होता है तो कर्ण का
संचित आक्रोश फूट पड़ता है-
`जाति-जाति रटते, जिनकी पूँजी केवल पाखंड,
मैं क्या जाँनू जाति? जाति हैं ये मेरे भुजदण्ड।
पढ़ो उसे जो झलक रहा है मुझमें तेज प्रकाश,
मेरे रोम- रोम में अंकित है मेरा इतिहास। ‘
अपनी प्रसिद्ध कविता `हिमालय’ दिनकर ने भारत-चीन युद्ध के समय संसद भवन में गाया था। इस कविता में वर्तमान समय में जकड़ी हुई भारतीय संस्कृति की जर्जर अवस्था के प्रति असंतोष की भावना परिलक्षित हुई है। उन्होंने भारत के पौरूष और पराक्रम को प्रदर्शित करने पर बल दिया है। इस कविता की इन पंक्तियों को पढ़िए-
`कितनी मणियाँ लुट गई?
मिटा कितना मेरा वैभव अशेष!
तू ध्यान-मग्न ही रहा, इधर
वीरान हुआ प्यारा स्वदेश। ‘
तथा
`तू पूछ, अवध से, राम कहाँ?
वृन्दा! बोलो घनश्याम कहाँ?
ओ मगध! कहाँ मेरे अशोक?
वह चन्द्रगुप्त बलधाम कहाँ ? ‘
कवि तत्कालीन राष्ट्र-नायक की नीतियों (विशेष कर,गाँधी जी की अहिंसा) से असहमति प्रकट करते हुए लिखते हैं-
`रे, रोक युधिष्ठिर को न यहाँ ,
जाने दो उनको स्वर्ग धीर ,
पर फिर हमें गांडीव-गदा ,
लौटा दे अर्जुन-भीम वीर। ‘
`परशुराम की प्रतीक्षा’ उनकी सुप्रसिद्ध काव्य कृति है। इस खण्ड काव्य का रचना-काल १९६२-६३ के आस-पास है, जब चीनी आक्रमण के फलस्वरूप भारत को जिस पराजय का सामना करना पड़ा, उससे राष्ट्रकवि दिनकर व्यथित हुए। कवि ने परशुराम धर्म को अपनाने पर बल दिया है। वे लिखते हैं-
`गरजो, अम्बर को भरो रणोच्चारों से,
क्रोधान्ध रोर,हाँकों से, हुंकारों से।
यह आग मात्र सीमा की नहीं लपट है,
मूढ़ों! स्वतंत्रता ही पर संकट है।’
तथा
`चिन्तकों! चिन्तन की तलवार गढ़ो रे,
ऋषियों! कृशानु-उद्दीपन मंत्र पढ़ो रे,
योगियों! जगो, जीवन की ओर बढ़ो रे,
बन्दूक पर अपना आलोक मढ़ो रे।’
फिर कवि दृढ़संकल्प के साथ कहते हैं-
़यह नहीं शांति की गुफा, युद्ध है, रण है,
तप नहीं, आज केवल तलवार शरण है।
ललकार रहा भारत को स्वयं मरण है,
हम जीतेगें यह समर, हमारा प्रण है।’
राष्ट्रकवि प्रगतिवादी समाज के पुनर्निर्माण के लिए वर्तमान समाज का ध्वंस आवश्यक मानते हैं। वे अपनी कविता से जग में ज्वाला सुलगाने की प्रार्थना करते हैं-
`पतन पाप पाखंड जले जग में ऐसी ज्वाला सुलगा दे।’
वर्तमान के ध्वंस की कामना करते हुए अपनी ‘ तांडव ‘ कविता में भी वे लिखते हैं-
`नाचो हे,नाचो,नटवर!
चन्द्रचूड़! त्रिनयन! गंगाधर! आदि- प्रलय ! अवढ़र! शंकर!
नाचो हे, नाचो , नटवर!!
कविवर दिनकर जी के `द्वन्द्व-गीत ‘
में अध्यात्म-भावना और व्यक्ति-समष्टि के द्वन्द्व की प्रधानता है। पुनर्जन्म का दृढ़ता से प्रतिपादन करते हुए वे लिखते हैं- `जीवन ही कल मृत्यु बनेगा,और मृत्यु ही नवजीवन,जीवन-मृत्यु-बीच तब क्यों द्वन्दों का यह उत्थान-पतन।’
`द्वन्द्व-गीत’ में कवि की दार्शनिक और साम्यवादी-भावना ने `सामधेनी’ और `कुरूक्षेत्र’ की रचना के लिए कवि के मन में बीज डाल दिए। `सामधेनी’ का रचयिता अपनी क्रांति की भावना से अभिभूत होकर आह्वान करता है-
`मेरी पूँजी है आग, जिसे जलना हो, बढ़े निकट आये।’`कुरूक्षेत्र’ का प्रतिपाद्य पाठकों को युद्ध की विभिषिकाओं से अवगत कराकर मानव जाति की सुरक्षा के लिए प्रयत्नशील होने का संदेश देता है। प्रसिद्ध समालोचक डॉक्टर शम्भुनाथ पाण्डेय ने लिखा है- `कुरूक्षेत्र’ प्रगतिवादी काव्य है और उसके रचयिता का प्रतिपाद्य साम्यवाद की स्थापना करना है,क्योंकि समाजवादी समाज की प्रतिष्ठा के अभाव में स्थायी और वास्तविक शान्ति की स्थापना असम्भव है। `जबतक मनुज मनुज का यह सुख-भाग नहीं सम होगा, शमित न होगा कोलाहल, संघर्ष नहीं कम होगा।’
`कुरूक्षेत्र’ में मानववाद के व्यापक रूप दिखाई देता है-
`श्रेय उसका बुद्धि पर चैतन्य उर की जीत ,
श्रेय मानव का असीमित मानवों से प्रीत,
एक नर से दूसरे के बीच का व्यवधान,
तोड़ दे जो,बस वही ज्ञानी,वही विद्वान्,
और मानव भी वही।’
`कुरूक्षेत्र’ के तृतीय सर्ग में `शक्ति और क्षमा’ शीर्षक कविता में भीष्मपितामह युधिष्ठिर को समझाते हुए कहते हैं-
`क्षमा शोभती उस भुजंग को
जिसके पास गरल हो,
उसको क्या जो दंतहीन
विषरहित, विनीत, सरल हो।’
तथा
`सच पूछो, तो शर में ही
बसती है दीप्ति विनय की,
संधि-वचन सम्पूज्य उसी का
जिसमें शक्ति विजय की।’
इस किवता का संदेश यह है कि क्षमा,या, तप, त्याग आदि सद्गुणों
का महत्व तभी है जब इन सद्गुणों के साथ बल अर्थात् शक्ति का समावेश हो।
कवि ने इस काव्य में कहा है कि मनुष्य का विकास एकांकी है। उसका जितना बौद्धिक विकास हुआ है,उसका हृदय-पक्ष उतना ही दुर्बल पड़ गया है। आवश्यकता इस बात की है कि मनुष्य के जीवन में मस्तिष्क और हृदय दोनों का समन्वय हो। इसी समन्वय में उनकी महत्ता निहित है-
`रसवती भू के मनुज का श्रेय,
यह नहीं विज्ञान कटु आग्नेय।
श्रेय उसका, प्राण में बहती प्रणय को वायु।
मानवों के हेतु अर्पित मानवों की आयु।’
`उर्वसी’ दिनकर का कामाध्यात्म संबंधी महाकाव्य है, जिसमें प्रेम या काम भाव को आध्यात्मिक भूमि पर प्रतिष्ठित करने का प्रयास किया गया है। इसकी विषय-वस्तु इन्द्रलोक की अप्सरा उर्वशी और इस लोक के राजा पुरूरवा की प्रेम-कथा पर आधारित है।
पुरुरवा का प्रणय-निवेदन और उर्वशी-सानिध्य-आकांक्षा को समर्पित इन पंक्तियों को पढ़िए-
`इन प्रफुल्लित प्राण-पुष्पों में मुझे शाश्वत शरण दो,
गन्ध के इस लोक से बाहर न जाना चाहता हूँ।
मैं तुम्हारे रक्त के कण में समा कर
प्रार्थना के गीत गाना चाहता हूँ।’
उर्वशी का समर्पण युक्त उत्तर इन पंक्तियों में पढ़िए-
`आ मेरे प्यारे तृषित! श्रान्त! अन्तःसर में मज्जित करके, हर लूँगी मन की तपन चाँदनी,फूलों से सज्जित करके। रसमयी मेघमाला बन कर मैं तुझे घेर छा जाऊँगी, फूलो की छाँह-तले अपने अधरों की सुधा-पिलाउंगी।’ हिन्दी के आलोचकों के बीच इस रचना को लेकर पक्ष और विपक्ष में पर्याप्त चर्चा हुई है। प्रख्यात समालोचक डॉक्टर नामवर सिंह ने लिखा है-`उर्वशी’ एक काव्य-कृति है- संभवतः सफल एवं महत्वपूर्ण काव्यकृति है,इससे किसी को बहस नहीं है। बहस है तो उसके महत्व को लेकर। आलोचकों का एक वर्ग ऐसा है जो उसे रामचरितमानस के बाद `कामायनी’ के समकक्ष नहीं तो उससे कुछ ही घटकर मानता है और यदि छायावादोत्तर कविता के संदर्भ में `उर्वशी’ के मूल्यांकन का प्रश्न उठे तो वे उसे असंदिग्ध भाव से इस दौर की सर्वोत्कृष्ट कृति घोषित कर दे। किन्तु स्पष्ट है कि `महत्व’ का प्रश्न मूल्यों से सम्बद्ध है इसलिए नये मूल्यों की खोज और निर्माण में रत नये सर्जक यदि `उर्वशी’ के उस महत्व के सामने प्रश्नचिन्ह लगाते हैं तो यह मूल्यगत अराजकता के प्रसार का प्रयास नहीं बल्कि पुराने और नये मूल्यों का सर्जनात्मक टकराव है। इसी `उर्वशी’ पर १९७३ में इन्हें ज्ञानपीठ के सर्वोच्च पुरस्कार से सम्मानित किया गया। `हारे को हरिनाम’ दिनकर की अंतिम काव्य रचना है,जिसमें राष्ट्रीय और अंतरराष्ट्रीय विषम परिस्थितयों को देखते हुए अवसाद और निराशा के भाव से खिन्न होकर कवि ने आध्यात्मिकता की शरण में जाने का संकेत किया है। दिनकर जी की अन्य काव्य-कृतियाँ ये हैं-बापू,धूप और धुआं, नील कुसुम,नये सुभाषित, संचयिता तथा रश्मि लोक। इनकी गद्य रचनाएं ये है- मिट्टी की ओर,अर्द्धनारीश्वर,भारतीय संस्कृति के चार अध्याय, कविता की खोज, रेती के फूल,उजली आग,काव्य की भूमिका,प्रसाद,पंत और मैथिलीशरण गुप्त,लोक देव तथा हे राम।
संस्कृति के चार अध्याय में दिनकर ने भारतीय संस्कृति का अत्यंत विशद और विस्तृत विवेचन विश्लेषित किया है।जीवन पर्यन्त ये साहित्य-रचना में निरत रहे। इनका जन्म २३ दिसम्बर १९०८ को बिहार के तत्कालीन मुंगेर जिला के सिमरिया घाट नामक गाँव में हुआ था। इनकी साहित्यिक सेवाओं के लिए भागलपुर विश्वविद्यालय ने इन्हें डीलिट् की मानद उपाधि दी १९५९ में भारत सरकार ने इन्हें `पद्मभूषण’ के सम्मान से विभूषित किया। ये बिहार सरकार के सब रजिस्ट्रार और जन-सम्पर्क विभाग के निदेशक के पद पर कार्यरत रहे।१९५२ में बिहार विश्वविद्यालय में प्रवक्ता के पद पर काम करते हुए इन्हें १९५४ तक राज्य-सभा का मनोनीत सदस्य बनाया गया। २४ अप्रैल १९७४ को हृदय गति रूक जाने के कारण इनका देहांत हो गया।
-अरूण कुमार यादव
बिहार